हरिष: आदि श्री के चरणों में मेरा प्रणाम स्वीकार हो। आदि श्री जी, मैं सांसारिक वस्तुओं के लिए बहुत ही पड़ेशान रहता हूँ कयोंकि मैं अपने पत्नी की ख्वाहिश को पूरा करना चाहता हूँ । मेरा मन भगवान के लिए भी बहुत तड़पता है परन्तु मेरे जीवन में हमेशा प्रतिकूल परिस्थितियाँ ही आती रहती है। मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता हूँ। आदि श्री जी आप से मेरा निवेदन है कि आप मुझे मार्गदर्शन कीजिए।
आदि श्री अरुण : ऐ हरिष ! अगर तुम पूरब की ओर जाना चाहते हो तो पश्चिम की ओर मत जाओ। यदि तुम पागल ही बनना चाहते हो तो सांसारिक वस्तुओं के लिए पागल मत बनो, बल्कि भगवान के प्यार में पागल बनो। संसार के चारों कोनों में यात्रा कर लो, लेकिन फिर भी तुमको कहीं भी कुछ भी नहीं मिलेगा। जो तुम प्राप्त करना चाहते हो वह तो यहीं तुम्हारे अन्दर विराजमान हैं। मिथ्या प्रतीति होनेवाली वस्तु भी सत्य लगती है जबकि वह प्रतीति हर क्षण मिथ्या ही होती है, सत्य नहीं। सत्य में संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सत्य बताते समय बहुत ही एक्राग और नम्र होना चाहिए क्योंकि सत्य के माध्यम से भगवान को ऐहसास किया जा सकता है।
आदि श्री अरुण : ऐ हरिष ! अगर तुम पूरब की ओर जाना चाहते हो तो पश्चिम की ओर मत जाओ। यदि तुम पागल ही बनना चाहते हो तो सांसारिक वस्तुओं के लिए पागल मत बनो, बल्कि भगवान के प्यार में पागल बनो। संसार के चारों कोनों में यात्रा कर लो, लेकिन फिर भी तुमको कहीं भी कुछ भी नहीं मिलेगा। जो तुम प्राप्त करना चाहते हो वह तो यहीं तुम्हारे अन्दर विराजमान हैं। मिथ्या प्रतीति होनेवाली वस्तु भी सत्य लगती है जबकि वह प्रतीति हर क्षण मिथ्या ही होती है, सत्य नहीं। सत्य में संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सत्य बताते समय बहुत ही एक्राग और नम्र होना चाहिए क्योंकि सत्य के माध्यम से भगवान को ऐहसास किया जा सकता है।
कर्म के लिए भक्ति का आधार होना आवश्यक है। एक सांसारिक आदमी जो कि ईमानदारी से भगवान के प्रति समर्पित नहीं है, उसको अपने जीवन में भगवन से कोई भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। अगर कोई सांसारिक आदमी भगवान से कुछ उम्मीद रखता है तो यह उसकी मूर्खता है। भगवान से प्रार्थना करो कि धन, नाम, आराम जैसी अस्थायी चीजों के प्रति लगाव दिन प्रति दिन अपने आप कम होता चला जाए। जिसने तत्वज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया, उस पर कामना और लोभ का विष नहीं चढ़ता है । तुम्हारे सुख और दुख के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में आई परिस्थितियों से जुड़े रहते हैं। कभी परिस्थिति अनुकूल होती है और कभी प्रतिकूल। अनुकूल परिस्थितियों से सुख मिलता है जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों से दुख की प्राप्ति होती है। लेकिन मनुष्य के कल्याण एवं भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम होती है। अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फस जाता है। लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग- लगभग नहीं ही रहती है तथा मन की प्रक्रिया परमपिता परमात्मा के चरणों में लगना शुरू हो जाती है।
प्रतिकूल परिस्थितियाँ आने पर तुमको प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में घिरने पर व्यक्ति को विशेष रूप से इसलिए सावधानी रखनी पड़ती है क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर रिस्तेदार, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं। यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे तो उसका मनोबल टूट जाएगा। परन्तु यदि प्रभु पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा, पूर्ण ब्रह्म के चिंतन में वृद्धि होगी और ख़राब परिस्थिति से गुजरने वाला व्यक्ति वैसे ही सफल होकर निकलेगा जैसे आग के भट्ठी में तपने के बाद सोना अधिक चमकदार हो जाता है।