मनुष्य किस ईश्वर की पूजा करें ?

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ईश्वर प्राप्ति के लिए ऋषियों ने संसार में अनेकों मार्ग प्रकट किए हैं, किन्तु वे सभी कष्ट दायक हैं और परिणाम में प्रायः स्वर्ग की ही प्राप्ति करने वाले हैं। अभी तक ईश्वर प्राप्ति कराने  वाले मार्ग तो गुप्त ही रहे हैं। इसका उपदेश करने वाला पुरुष प्रायः भाग्य से ही मिलता है। (श्रीमद्भगवतम् महा पुराण , माहात्म्य, २ :५६ - ५८ ) वह पुरुष जो आज आपको उपदेश करने आया है वह ईश्वर पुत्र है। वह पुरुष जो आज आपको उपदेश करने आया है वह सृष्टि का पहला पुरुष है। वह पुरुष जो आज आपको उपदेश करने आया है वह परमेश्वर का पहला और एकलौता पुत्र है जिसको पहिलौठा  भी कहते हैं। सम्पूर्ण सृष्टि की रचना से पहले वह उत्पन्न हुआ, वह अपने परम पिता की गोद में बैठा था, वह यह कहता है कि  तुम केवल पूर्ण ब्रह्म की  पूजा करो जो अगम्य ज्योति में रहते  हैं, जो रुक्म वर्ण (अर्थात शीतल) के हैं, जो ज्योतिओं का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे हैं, जो जानने योग्य एवं तत्व ज्ञान से प्राप्त करने योग्य हैं , जो कार्यब्रह्म से एक सौ करोड़ योजन दूर ऊर्जा नदी के पार रहते हैं जिसको ज्ञानीजन वास्तविक गोलोक धाम कहते हैं, जिसको न सूर्य प्रकाशित कर सकता, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, जिस परमपद को प्राप्त कर मनुष्य लौट कर संसार में वापस नहीं आते।
वह पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर सबका स्वामी, परमात्मा एवं  परम सत्य हैं और उसका नाम भी उतना ही सत्य है।  वह भय से रहित है, उसे किसी से वैर नहीं है, वह भूत, भविष्य और वर्तमान से परे  है, वह अयोनि है, वह जन्म - मरण के चक्र से मुक्त है, वह एक मात्र सत्य स्वरुप है। चारों युगों में उसकी सत्ता है। सत्य युग में भी उसकी सत्ता थी, त्रेता युग में भी उसकी सत्ता थी, द्वापर युग में भी उसकी सत्ता थी और कलियुग में भी उसकी सत्ता है। कल भी उसकी सत्ता मौजूद थी, आज भी उसकी सत्ता मौजूद है और आगे भी उसकी सत्ता मौजूद रहेगी।
उस परमात्मा के हुक्म की कोई व्याख्या सम्भव नहीं है, परम की इच्छा की कोई शाब्दिक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। विश्व के सभी रूप - आकार उसी की इच्छा द्वारा सृजित है। वह परमात्मा जिस पर कृपा कर देता है, उसे आत्म पद देकर मुक्त कर देता है और अन्य को जन्म - मरण के आवागमन में भी उसी की इच्छा से रहना होता है। विश्व का प्रत्येक कार्य - व्यापार और व्यवहार उसके हुक्म में बंधा है, उससे बाहर कुछ भी नहीं है। मनुष्य अज्ञानता पर प्रसन्न होता है, माया - बंधनों में पड़ा जीव अहंकार - वश  प्रभु   के कार्य व्यापार को अपना किया बताते हैं, तो भी वह परमात्मा उन पर क्रोधित न होकर उनकी नासमझी पर मुस्कुराता है। जगत की उतपत्ति - स्थिति और प्रलय करने वाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही है। शंकर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। (श्रीमद्भगवतम् महा पुराण १२;१२:६६)
श्री महादेव जी ने उस ईश्वर के सम्बन्ध  में कहा कि "जिन अनन्त  परमेश्वर में ब्रह्मा जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश  इस ब्रह्माण्ड के समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समय पर पैदा होते हैं और समय आने पर फिर उनका पता भी नहीं  चलता, जिसमें हमारे जैसे हजारों शंकर चक्कर काटते रहते हैं। .... मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान ब्रह्मा, कपिलदेव, अपान्तरम्, देवल, धर्म, आसुरी तथा मरीचि आदि दुसरे सर्वज्ञ, सिद्धेश्वर -  सभी भगवन की माया को नहीं जान सकते क्योंकि हम उसी माया के घेरे में हैं।"(श्रीमद्भगवतम्  महा पुराण ९;४:५६ - ५८)
 उस ईश्वर के संबंध में ब्रह्मा जी ने कहा कि "   मेरी दो परार्ध की आयु समाप्त होगी  और कालस्वरुप भगवन अपनी यह सृष्टि लीला समेटने लगेंगे और जगत को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूड़ंमात्र   से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जाएगा। उन्होंने आगे यह भी कहा  कि मैं, शंकरजी, दक्ष- भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बंधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य  करके हमलोग संसार का हित  करते हैं।" (श्रीमद्भगवतम् महा पुराण ९;४:५३-५४)
श्रीमद्भगवतम् महा पुराण २;६:३६ में ब्रह्मा जी ने कहा कि "मैं, मेरे पुत्र, तुम लोग और शंकर जी भी उनके सत्य स्वरुप को नहीं जानते, तब दुसरे देवता तो उन्हें जान  कैसे सकते हैं। "
श्रीमद्भगवतम् महा पुराण १२;३:४३ में श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा कि "श्री हरी भगवान ही चराचर जगत के  परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र, ब्रह्मा  आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरण कमलों में अपना  सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। " वह परमेश्वर मनुष्य शरीर की रचना बड़े विचित्र ढ़ंग से की है। मनुष्य के जीवन निर्वाह और साधन के लिए जो - जो आवश्यक सामग्री है वह उसे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराया है परन्तु वह मनुष्य उसका किस प्रकार उपभोग करे कि संतुलन कायम रहे और किस ईश्वर के आधीन रहे कि उसका जीवन हरा - भरा और मुस्कुराता रहे यही सही निर्णय लेने की जरूरत है । 

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