Move towards Happiness & Peace / सुख और शांति की ओर

सुख और शांति  की  ओर 


आदिश्री अरुण का प्रयास दुख को समूल नष्ट करने का है।  मृत्यु का दुःख, बुढ़ापे का दुःख, आभाव का दुःख, वियोग का दुःख और रोग की पीड़ा का दुःख इन प्रसंगों में अध्यात्मक जीवन को  अपनाने का लक्ष बना लेना ही आदिश्री के ज्ञान को प्राप्त करना है ।
हे मनुष्य ! जन्म दुखदायी होता है, बुढ़ापा दुखदायी होता है, बीमारी दुखदायी होता है, मृत्यु  दुखदायी होता है, वेदना, रोना, मन की उदासीनता, किसी चीज का आभाव  दुखदायी होता है।
संसार के सभी प्रकार के मनुष्य के जीवन में दुःख केवल चार प्रकार का होता है - (1) कल्पनाजन्य दुःख / काल्पनिक दुःख अथवा  कल्पना या सोच के कारण दुःख (2) वियोग जन्य दुःख (3) अभाव जन्य दुःख और (4) परिस्थिति जन्य दुःख
दुःख से बहार निकलने के तीन उपाय हैं -
(1) संसार में जो कुछ भी दिखता है सब अस्थाई है और शीघ्र नष्ट होने वाला है
(2) जो कुछ दीखता है उसमें दुःख छिपा हुआ है
(3) ऊपर वर्णित दुखों में से किसी भी चीजों के अन्दर आत्मा नहीं है ; इसलिए ये सभी नष्ट होंगे  ।

*ऐसा कोई उपाय नहीं कि जिससे मृत्यु न हो । जिसने जन्म लिया है, वह मरेगा अवश्य । प्राणियों का स्वभाव ही मृत्यु है ।
*पके हुए फलों को जिस तरह डाल से नीचे गिर पड़ने का भय है, उसी तरह जन्मे हुए प्राणियों को मृत्यु का भय लगा रहता है ।
*कुम्हार के गढ़े हुए मिट्टी के बर्तन का जिस प्रकार टूटने पर पर्यवसान हो जाता है, उसी प्रकार प्राणियों के जीवन का मृत्यु में पर्यवसान होता है ।
*छोटा हो या बड़ा, मूर्ख हो या पंडित, सभी मृत्यु के अधीन हैं। ये सभी मृत्युपरायण हैं ।
*मृत्यु और जरा से यह सारा संसार ग्रसित हो रहा है । यह तो लोक स्वभाव ही है, ऐसा समझकर आत्मज्ञ पंडित शोक नहीं करते ।
*जिसके आने और जाने का मार्ग तुझे मालूम नहीं और जिसके दोनों ही अंत तेरे देखने में नहीं आते, उसके लिए तू अकारन ही शोक करता है ।
*कितना ही रोओ, कितना ही शोक करो, इससे चित्त को शांति तो मिलने वाला नहीं । उलटे दुःख ही बढ़ेगा और शरीर पर भी शोक का बुरा प्रभाव पड़ेगा ।
*स्वयं को कष्ट देने वाला मनुष्य क्षीणकाय और निस्तेज हो जाता है । शोक से उन मृत प्राणियों को कोई लाभ तो पहुंचता नहीं । अतएव यह शोक व्यर्थ है ।\
*कोई सौ वर्ष या इससे अधिक जीवित रहे तो क्या- एक न एक दिन तो उन प्रियजनों के बीच से अलग होना ही है ।
*अतः जो अपने आपको सुखी रखना चाहता है, उसे अपने अंतःकरण से इस शोकरूपी मल-मूत्र को खींचकर बाहर  फेंक देना चाहिए ।
*यह चीज मेरी है या दूसरों की, ऐसा जिसे नहीं लगता और जिसे ममत्व की वेदना नहीं होती, वह यह कहकर शोक नहीं किया करता कि मेरी वह चीज नष्ट हो गई है ।
*प्रिय वस्तु से ही शोक उत्पन्न होता है और प्रिय से ही भय । प्रिय वस्तुओं के बंधन से जो मुक्त है, उसे शोक नहीं, फिर भय कहां से हो ?
*प्रेम या मोहासक्ति से ही शोक उत्पन्न होता है और प्रेम से ही भय । प्रेम से जो मुक्त हो गया है, उसे शोक कैसा और फिर भय कहां से होगा ?
*इसी प्रकार राग, काम और तृष्णा से शोक तथा भय उत्पन्न होता है । इनसे जो विमुक्त है, उसका शोक से क्या संबंध- और फिर उसे भय कहां से होगा ?
*मनुष्य तो है ही क्या ? ब्रह्मा के भी वश की यह बात नहीं कि जो जराधर्मी है, उसे जरा (बुढ़ापा) न सताए, जो मर्त्य है उसकी मृत्यु न हो, जो क्षयवान है उसका क्षय न हो और जो नाशवान है उसका नाश न हो ।
*किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाने के प्रसंग पर मूढ़ लोग यह विचार नहीं करते कि 'यह बात तो नहीं है कि मेरे ही प्रियजन को बुढ़ापा, व्याधि और मृत्यु का शिकार होना पड़ा है, यह तो सारे संसार का धर्म है, प्राणीमात्र जरा और मृत्यु के पाश में बंधे हुए हैं ।'
*मूढ़ लोग विवेकांध होकर शोक-सागर में डूब जाते हैं और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं । न उन्हें अन्न रुचता है, न जल । उनके शरीर की कांति क्षीण पड़ जाती है । कामकाज सब बंद हो जाता है । उनकी यह दशा देखकर उनके शत्रु आनंद मनाते हैं कि चलो अच्छा हुआ, इनका प्रियजन तो मरा ही, ये भी उसके वियोग में मरने वाले हैं ।
*पर बुद्धिमान और विवेकी मनुष्य की बात इससे अलग है । वह जरा, व्याधि, करण, क्षय और नाश का शिकार होने पर यथार्थ रीति से विचार करता है । यह देखकर कि इस विकार से तो जगत में कोई भी अछूता नहीं बचा, वह शोक नहीं करता । वह अपने अन्तःकरण से शोक के उस विषाक्त बाण को खींचकर फेंक देता है, जिस बाण से बिद्ध मूर्ख मनुष्य अपनी ही हानि करते हैं ।
मृत्यु से बचने के चार उपाय हैं :
1- परमेश्वर के वचन को धारण करना । परमेश्वर के वचन में जीवन है इसलिए जो मनुष्य परमेश्वर के वचन को धारण कर लेता है उसकी मृत्यु नहीं होती है । उसी मनुष्य की मृत्यु होती है जो परमेश्वर के वचन को छोड़ कर शैतान के वचन को धारण कर लेते हैं क्योंकि शैतान के वचन में जीवन नहीं है । धर्मशास्त्र, यूहन्ना 1 :1 तथा 3 और 4  यह कहता है कि   -  आदि में वचन था । वचन परमेश्वर के साथ था ; और वचन परमेश्वर था । सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ है । उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई । उसी में जीवन था और जीवन मनुष्यों की ज्योति थी । इसलिए मनुष्य को जीवित रहने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य परमेश्वर के वचन को धारण करे ।
2- आसक्ति को छोड़ कर, सब कर्मों को एक मात्र ईश्वर में त्याग कर, एक  मात्र ईश्वर के स्वरुप का मनन करो और हमेशा ईश्वर से संपर्क बनाए रखो ।  ईश्वर से हमेशा संपर्क बनाए रखने  के लिए एक दिन में ईश्वर को पांच बार धन्यवाद दो - (1) प्रातः 4 A.M. (2) प्रातः 4:24 A.M. (3) प्रातः 5:00 A.M. (4) सायं  4 P.M. या सायं 4:30 P.M. या सायं 5:00 P.M.(5) रात्रि 10 P.M. या  रात्रि 10:30 P.M. या रात्रि 11:00 P.M.
3- सब प्रकार के कर्म मनुष्य प्रकृति के गुणों के दबाब में आकर करता है । (गीता 3:5, 27) सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण - ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण मनुष्य को शरीर में बांधते हैं । (गीता 14:5) जो मनुष्य शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन कर देता है वह जन्म, मृत्यु , बृद्धा अवस्था और सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परम आनन्द को प्राप्त होता है  । (गीता 14:20) इसलिए शीघ्र ही प्रकृति के तीनों गुणों को उल्लंघन कर दो ।
4- आप शरीर नहीं हैं बल्कि आत्मा हैं और यह आत्मा ईश्वर का अंश है । (गीता 15:7) शरीर एक रथ है जिस पर आत्मा सवारी करता है । (गीता 18:61) रथ यदि चलाने लायक न हो तो आत्मा रथ को बदल देता है । इसलिए आत्मा की मृत्यु नहीं होती है बल्कि वह एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है । गीता 2:22 में ईश्वर ने शरीर को वस्त्र कहा । जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को उतार कर नए वस्त्र धारण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे नए शरीर को प्राप्त करता है ।
सुख और शांति प्राप्त करने के लिए आदिश्री के 12 उपदेश  
1- कई हजारों खोखले शब्दों से अच्छा, केवल वह एक शब्द है जो मन में शांति लाए ।
2- आकाश के लिए पूरब और पश्चिम में कोई भेद नहीं है, परन्तु लोग अपने मन में
भेद-भाव को जन्म देते हैं  । यदि आप यह भेद मिटा दें तो आप शांति को प्राप्त होगें  ।
3- यदि आप अपना मार्ग नहीं बदलेंगे तो निश्चित ही आप वही पहुँच जायेंगे जहाँ आप जा रहे हैं ।
4-  भले ही आप पूरे ब्रह्माण्ड में कहीं भी ऐसे व्यक्ति को खोज लें जो आपको आपसे ज्यादा प्यार करता हो, लेकिन आप पाएंगे कि जितना प्यार आप खुद से कर सकते हैं उतना प्यार  आपसे कोई नहीं कर सकता  ।
बिना स्वास्थ्य के जीवन बेकार है, वह केवल एक पीड़ा की स्थिति और मौत की छवि के समान है । हर व्यक्ति अपनी सेहत और बीमारी के लिए खुद जिम्मेदार है  । इसलिए आप सबसे पहले निरोगी काया  प्राप्त करें  ।
5- जो क्रोधित करने वाले विचारों से मुक्त हैं उन्हें निश्चय ही शांति प्राप्त होगी  । यदि आप क्रोध करेंगे तो शायद इसके लिए आपको दंड नहीं मिले, पर क्रोध ही आपका सबसे बड़ा दंड है ।
6- चाहे आप कितने भी पवित्र शब्दों को पढ़ लें या बोल लें, पर जब तक आप इन शब्दों को प्रयोग में नहीं लाएंगे तब तक ये शब्द आपका कुछ भी भला नहीं कर सकते  । इसलिए आप ज्ञान प्राप्त करें और उसको प्रयोग में लाएँ । ध्यान के द्वारा आप ज्ञान प्राप्त करते हैं, और बिना ज्ञान के आप अज्ञानी हैं । यदि आप ज्ञानी  बन जाएँ तो आप सबसे पहले इस बात को अच्छी तरह जानलें कि  क्या चीज आपको आगे ले जाता है और क्या चीज आपको रोके रखता है । आप केवल उस मार्ग को चुनो जो आपको बुद्धिमत्ता की और ले जाता हो ।
7- अगर आपको मोक्ष पाना है तो आपको खुद ही मेहनत करनी होगी, दूसरों पर निर्भर मत रहो  ।
8- खुशियाँ  पैसों से खरीदी नहीं जा सकती । खुशियाँ  इस बात से मिलती हैं की हम कैसा महसूस कर रहें हैं  । दूसरों से कैसा व्यव्हार कर रहे हैं और दूसरे के व्यवहार का कैसा जवाब देते हैं  ।
9- यदि किसी समस्या का समाधान हो सकता है तो चिंता क्यों करें ? और यदि समस्या का समाधान नहीं हो  सकता तो चिंता करने  से आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा ।
10- जिस प्रकार मज़बूत चट्टान हवा से नहीं हिलती, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति भी प्रशंसा और आरोपों से विचलित नहीं हो सकता ।
11- इस पूरी दुनिया में इतना अन्धकार नहीं है कि वो एक छोटी सी मोमबत्ती का प्रकाश बुझा सके । ठीक उसी तरह मनुष्य के पास ऐसा कोई बल ही नहीं है जो आपके सुख को मिटा दे । बस आपको इतना याद रखना है कि जिस तरह कोई मोमबत्ती बिना आग के नहीं जल सकती, ठीक उसी तरह मनुष्य भी बिना आध्यात्मिक ज्ञान के जीवन नहीं जी सकता ।
12- केवल मन की वजह से ही मनुष्य सभी अच्छे अथवा बुरे कार्य करता है । अगर मन को ही परिवर्तित कर दिया जाए तो क्या संसार में कोई मनुष्य अनैतिक कार्य कर सकता है ?







Post a Comment

और नया पुराने