ज्ञान योग
(आदिश्री अरुण)
सृष्टि के प्रारम्भ में परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) ने अपने आपको तीन भागों में विघटित किया । परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) ने सबसे पहले प्रकृति को प्रकट किया जिसको (1) जड़ प्रकृति तथा (2) चेतन प्रकृति कहते हैं । जड़ प्रकृति को महा विष्णु भी
कहते हैं और चेतन प्रकृति को गर्भोदकसाई विष्णु भी कहते हैं । जड़ प्रकृति दृश्य है। इससे रचना होती है अर्थात जड़ प्रकृति का गुण है रचना करना ।
चेतन प्रकृति फंक्शन करती है अर्थात चेतन प्रकृति का गुण है फंक्शन करना । चेतन प्रकृति दृश्य नहीं है।
इसके बाद (3) परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) ने अपने सदृश आत्मा को प्रकट किया जो परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) का प्रतिबिम्ब (Image) था जिसको क्षीरदकोसाई विष्णु कहते हैं अथवा सुपर सोल भी कहते हैं । परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) का प्रतिबिम्ब (image) होने के कारण इनको परमात्मा, ईश्वर, ईश्वरपुत्र, पहिलौठा, एकलौता, आदिपुरुष और आदिश्री नाम से पुकारते हैं।
ईश्वरपुत्र ने ही जड़ प्रकृति और चेतन प्रकृति को एक साथ मिलाया तो उससे स्वयं एक शक्ति प्रकट हो गई और उसका नाम पड़ा "माया" । इस कथन की पुष्टि करते हुए श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " हिमालय के घर देवी का प्राकट्य " स्कंध - 7, पेज नम्बर 551 में भगवती जगदम्बा पर्वतराज हिमालय से बोली - " पहले केवल मैं ही थी । दूसरी किसी वस्तु की सत्ता नहीं थी । उस समय मेरा रूप अप्रतवार्य, अनिर्देश्य, अनौप्यम और अनामय था । उसी रूप से एक शक्ति स्वयं प्रकट हो गई उसका नाम " माया " पड़ गया । "
श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " हिमालय के घर देवी का प्राकट्य " स्कंध - 7, पेज नम्बर 553 में भगवती जगदम्बा पर्वतराज हिमालय से बोली - " राजन ! उस समय जो प्रकृति नाम से विख्यात थी उसके दो भेद हैं - " माया " और " अविद्या " ।
श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " हिमालय के घर देवी का प्राकट्य " स्कंध - 7 में दिया गया भगवती जगदम्बा का यह बयान इस कथन की पुष्टि करता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में दो प्रकार की प्रकृति प्रकट हुई थी जिसको गीता अध्याय 7 के 4-5 में जड़ प्रकृति तथा चेतन प्रकृति कहा गया है ।
इसके बाद (3) परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) ने अपने सदृश आत्मा को प्रकट किया जो परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) का प्रतिबिम्ब (Image) था जिसको क्षीरदकोसाई विष्णु कहते हैं अथवा सुपर सोल भी कहते हैं । परब्रह्म (पूर्णब्रह्म) का प्रतिबिम्ब (image) होने के कारण इनको परमात्मा, ईश्वर, ईश्वरपुत्र, पहिलौठा, एकलौता, आदिपुरुष और आदिश्री नाम से पुकारते हैं।
ईश्वरपुत्र ने ही जड़ प्रकृति और चेतन प्रकृति को एक साथ मिलाया तो उससे स्वयं एक शक्ति प्रकट हो गई और उसका नाम पड़ा "माया" । इस कथन की पुष्टि करते हुए श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " हिमालय के घर देवी का प्राकट्य " स्कंध - 7, पेज नम्बर 551 में भगवती जगदम्बा पर्वतराज हिमालय से बोली - " पहले केवल मैं ही थी । दूसरी किसी वस्तु की सत्ता नहीं थी । उस समय मेरा रूप अप्रतवार्य, अनिर्देश्य, अनौप्यम और अनामय था । उसी रूप से एक शक्ति स्वयं प्रकट हो गई उसका नाम " माया " पड़ गया । "
श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " हिमालय के घर देवी का प्राकट्य " स्कंध - 7, पेज नम्बर 553 में भगवती जगदम्बा पर्वतराज हिमालय से बोली - " राजन ! उस समय जो प्रकृति नाम से विख्यात थी उसके दो भेद हैं - " माया " और " अविद्या " ।
श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " हिमालय के घर देवी का प्राकट्य " स्कंध - 7 में दिया गया भगवती जगदम्बा का यह बयान इस कथन की पुष्टि करता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में दो प्रकार की प्रकृति प्रकट हुई थी जिसको गीता अध्याय 7 के 4-5 में जड़ प्रकृति तथा चेतन प्रकृति कहा गया है ।
ईश्वरपुत्र ने माया को साथ लेकर सारी सृष्टि की रचना की । यही कारण है कि गीता अध्याय 7 के
6 में ईश्वर
ने कहा कि "तू ऐसा
समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूलकारण हूँ । "
धर्मशास्त्र, इब्रानियों 1 : 2 में ईश्वर ने कहा कि मैंने अपने पुत्र के द्वारा सारी सृष्टि रचाया ।
श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " हिमालय के
घर देवी का प्राकट्य " स्कंध - 7, पेज
नम्बर 553
में भगवती जगदम्बा पर्वतराज हिमालय से बोली - मैं ईश्वर नहीं हूँ । इसलिए तुम मेरी पूजा मत करो। तुम परब्रह्म की पूजा करो लेकिन परब्रह्म को मैं भी नहीं जानती हूँ । - " राजन ! शुद्ध
- सत्व - प्रधाना माया के साथ जो रहता है वही ईश्वर कहलाता है । उस ईश्वर को परब्रह्म की पूर्ण जानकारी रहती है । वह सर्वज्ञानी, सबका उत्पादक तथा सब पर कृपा करने वाला है।
श्रीमद्भागवतम महा पुराण 4;7:50 - 51 में उस ईश्वर ने यह कहा कि " जगत का महा कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ । मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयं प्रकाश और उपाधिशून्य हूँ । अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मों के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर - ये नाम धारण किए हैं । "
श्रीमद्भागवतम महा पुराण 4;7:50 - 51 में उस ईश्वर ने यह कहा कि " जगत का महा कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ । मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयं प्रकाश और उपाधिशून्य हूँ । अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मों के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर - ये नाम धारण किए हैं । "
धर्मशास्त्र, कुलुस्सियों
1:15 में ईश्वरपुत्र के बारे में यह कहा गया है कि " वह तो
(ईश्वरपुत्र तो) अदृश्य परमेश्वर का प्रतिरूप और सारी सृष्टि में पहिलौठा है क्योंकि उसी में सारी वस्तुओं की सृष्टि हुई, स्वर्ग की हो अथवा पृथ्वी की, देखी या अनदेखी ....... । "
चुकि ईश्वरपुत्र ने ही (अर्थात क्षीरदकोसाई विष्णु ने ही) माया को स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को
उत्पन्न किया इसलिए माया अर्थात प्रकृति तो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर की माता हुई और पिता ईश्वरपुत्र
अर्थात क्षीरदकोसाई विष्णु हुए ।
चुकि ईश्वरपुत्र ने ही (अर्थात क्षीरदकोसाई विष्णु ने ही) माया को स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को
उत्पन्न किया इसलिए माया अर्थात प्रकृति तो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर की माता हुई और पिता ईश्वरपुत्र
अर्थात क्षीरदकोसाई विष्णु हुए ।
प्रकृति तो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर जी की माता हैं - इस कथन की पुष्टि करते हुए श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " ब्रह्मा जी
का भगवती के चरणनख में
समस्त देवता आदि को
देखना
" स्कंध - 3, पेज नम्बर 123
में विष्णु जी भगवती जगदम्बा से बोले -
" यह सारा संसार तुम्हीं से उद्भासित हो रहा है । मैं (अर्थात विष्णु), ब्रह्मा और शंकर - हम सभी तुम्हारी कृपा से ही विद्यमान हैं । हमारा आभिर्भाव अर्थात जन्म और तिरोभाव अर्थात
मृत्यु हुआ करता
है । केवल तुम्हीं नित्य हो, जगज्जननी हो, प्रकृति हो और सनातनी देवी हो ।
"
उपरोक्त कथन
से तीन बातें स्पष्ट होती है - (1) प्रकृति नित्य है,
सनातन है और इसका नाश नहीं होता है, प्रकृति ही जगज्जननी है, भगवती जगदम्बा है और (3) ब्रह्मा, विष्णु और शंकर जी तीनों का जन्म होता है और
तीनों की मृत्यु होता है
।
श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " ब्रह्मा जी
का भगवती के चरणनख में
समस्त देवता आदि को
देखना
" स्कंध - 3, पेज नम्बर 123
में भगवान् शंकर बोले - हे देवी ! यदि महाभाग विष्णु तुम्हीं
से प्रकट हुए हैं तो उनके बाद उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा भी तुम्हारे ही बालक हुए।
फिर मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ ? अर्थात मुझे भी
उत्पन्न करने वाली तुम्हीं हो।
सम्पूर्ण
संसार की सृष्टि करने में तुम चतुर हो । हे
माता ! पृथ्वी, जल, पवन, आकाश, अग्नि, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, बुद्धि, मन
और अहंकार - ये सब तुम्हीं हो । इस चराचर जगत
को तुम्हीं बनती हो। इसके बाद वे ब्रह्मा,
विष्णु एवं शंकर - तीनों सदा इसे सजाने में
व्यस्त रहते हैं । हे माता ! यदि कहा जाय कि पृत्वी, अप (जल), तेज, वायु और आकाश -
इन 5 सगुन तत्वों से जगत स्वयं उत्पन्न हो
सकता है तो ये 5 तत्व भी तुम्हारी ही कला है
। तुमसे पृथक इन तत्वों की अभिव्यक्ति ही कैसे हो सकती
है ? हे माता ! ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप धारण करके तुम्हीं जगत की रचना
कराती हो । अतः सम्पूर्ण चराचर जगत तुम्हारा ही रूप है । तुम भाँति - भाँति के स्वांग बना कर
कौतुहल अपनी इच्छा के अनुसार क्रीड़ा करती और शांत भी हो जाती हो । इस संसार की सृष्टि,
स्थिति और संहार में तुम्हारे गुण सदा समर्थ हैं । उन्हीं तीनों गुणों से उत्पन्न हम
ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर नियमानुसार कार्य में तत्पर रहते हैं । हम ये तीनों देवता जो जगत का कार्य सँभालते रहते हैं, तुम्हारे ही रूप
हैं । अतः सबका कारण तुम्हीं सिद्ध हुई । "
श्रीमदभागवतम
महा पुराण 10 ; 3 : 20 में वसुदेव जी ने (क्षीरदकोसाई
विष्णु ) से कहा कि " हे ईश्वर ! आप ही
तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए अपनी माया से सत्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णु
रूप ) धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान
रक्तवर्ण (सृजनकारी ब्रह्मा रूप) और प्रलय के समय तमोगुण प्रधान कृष्णवर्ण
(संहारकारी रुद्र रूप) स्वीकार करते हैं ।
प्रभु ! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं ।"
गीता 13:16 में ईश्वर ने कहा कि " वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण पोषण करने वाला और रूद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उतपन्न करने वाला है ।"
गीता 13:16 में ईश्वर ने कहा कि " वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण पोषण करने वाला और रूद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उतपन्न करने वाला है ।"
निष्कर्षतः
यह कहना गलत न होगा कि प्रकृति (माया) ब्रह्मा, विष्णु और महेश कि माता हैं तथा क्षीरदकोसाई
विष्णु अर्थात ईश्वरपुत्र ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पिता हैं । गीता अध्याय 14 के श्लोक
1 से 5 में ईश्वर ने कहा कि - "ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं
फिर कहुँगा, जिसको जानकार सब मुनिजन इस संसार
से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं । इस ज्ञान का आश्रय करके अर्थात
धारण करके मेरे स्वरुप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते।
हे अर्जुन ! मेरी महत - ब्रह्मरूप मूल प्रकृति सम्पूर्ण भूतों कि योनि है अर्थात गर्भाधान
का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदाय रूप गर्भ को स्थापन करता हूँ । उस जड़ - चेतन
के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।
हे अर्जुन ! नाना प्रकार की सब योनियों में जीतनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी
प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज
को स्थापन करने वाला पिता हूँ । हे अर्जुन
! सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण - ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को
शरीर से बांधते हैं । "
हे मनुष्य ! बंधन दो से होता है - (1) प्रकृति से
और (2) प्रकृति के कार्य गुणों से । प्रकृति के बंधन से छूटने के लिए मैंने प्रकृति और प्रकृति के कार्य का ज्ञान दिया ताकि मनुष्य प्रकृति और प्रकृति के कार्य को ठीक
- ठीक समझ सके । जो
मनुष्य प्रकृति और प्रकृति के कार्य को ठीक - ठीक अनुभव कर लेता है और उसे व्यवहारिक जीवन में अपनाता है तो वह ईश्वर को प्राप्त कर लेता है । अर्थात मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।
लौकिक और पारलौकिक जितने भी ज्ञान हैं अर्थात जीतनी भी विद्याओं, कलाओं, भाषाओँ, लिपियों आदि का ज्ञान है, उन सब ज्ञानों से प्रकृति और पुरुष का भेद बताने वाला, प्रकृति से अतीत करने वाला, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला यह ज्ञान श्रेष्ट है । इसके सामान कोई दूसरा ज्ञान है ही नहीं, हो सकता नहीं और होना संभव भी नहीं । इसका कारण यह है कि दूसरे सभी ज्ञान संसार में फ़साने वाले हैं तथा यह बंधन में डालने वाले हैं । इस ज्ञान को ईश्वर ने उत्तम और परम ज्ञान कहा । उत्तम का अर्थ होता है - "यह ज्ञान
प्रकृति और उसके कार्य से
सम्बन्ध - विच्छेद कराने वाला
" और परम का अर्थ होता
है "श्रेष्ट
"। अर्थात यह ज्ञान परमात्मा का प्राप्ति कराने वाला होने के कारण सर्वोत्कृष्ट है । दूसरे ज्ञान को प्राप्त करने पर मुक्ति मिलेगी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है ; परन्तु इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले सबके सब मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं । इसलिए यह ज्ञान जाँचा - परखा ज्ञान है, यह ज्ञान ठोका - बजाया हुआ ज्ञान है। इस ज्ञान को अपनाकर पहले भी मुनिजन परमात्मा को प्राप्त हो चुके हैं ।
सांसारिक कार्यों की जितनी सिद्धियाँ हैं अथवा योग साधन से जितनी भी सिद्धियाँ प्राप्त होती है ; जैसे अणिमा, महिमा, गरिमा आदि जीतनी सिद्धियाँ हैं - वे सभी वास्तव में असिद्धियाँ ही हैं । इसका कारण यह है कि ये सभी जन्म - मरण देने वाली है, बंधन में डालने वाली है, परमात्मा की प्राप्ति में बाधा डालने वाली है परन्तु मैं जो ज्ञान " प्रकृति और
पुरुष में भेद बताने वाला " ज्ञान दिया हूँ यह
ज्ञान मनुष्य को जन्म और मृत्यु के बंधन से छुड़ाने वाला ज्ञान है। इस ज्ञान का अनुभव करना ही उसका आश्रय लेना है । इस ज्ञान का अनुभव होने से मनुष्य के सम्पूर्ण संशय मिट जाते हैं और वह ज्ञान स्वरुप हो जाता है ।
इस ज्ञान का आश्रय लेकर मनुष्य ईश्वर के स्वधर्म को प्राप्त कर लेता है, जिससे वह बड़ी आसानी से मुक्ति को पा जाता है ।
परमात्मा छोटेपन और बड़ेपन से रहित है । अतः वे सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है और महानों से भी महान है । परन्तु संसार की दृष्टि से सबसे बड़ी चीज मूल प्रकृति ही है अर्थात संसार में सबसे बड़ा व्यापक तत्व मूल प्रकृति ही है । परन्तु सच्चाई यह है कि परमात्मा से बढ़कर संसार में कोई व्यापक नहीं है। इसलिए मूल प्रकृति को गीता अध्याय 14 के
श्लोक 3 में
महत ब्रह्म (महद्ब्रह्म) कहा गया है। महत
(अर्थात महतत्व अर्थात समष्टि बुद्धि) और ब्रह्म (परमात्मा) के बीच में होने को मूल प्रकृति को महद्ब्रह्म कहा गया है । महद्ब्रह्म का अर्थ होता है सृष्टि का प्रकट होना और सृष्टि का अंत होना । ईश्वर की अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत को रचती है और इसका नाश भी करती है; इसलिए यह संसार चक्र घूम रहा है । (गीता
9:10 ) अर्थात भगवान
प्रकृति को लेकर संसार की रचना करते हैं और प्रकृति संसार की रचना भगवान् की अध्यक्षता में
करते हैं । चुकि भगवान् अध्यक्ष हैं - इसी कारण से जगत का विविध परिवर्तन होता है ।
लेकिन
इस परब्रह्म और इस ईश्वर के बारे में कोई नहीं जानता है। न तो सत्य युग के तत्वदर्शी
ज्ञानी पुरुष जानते हैं, न वेदों के प्रकाण्ड विद्वान जानते हैं और न ब्रह्मा, विष्णु,
महेश ही जानते हैं; तो फिर साधारण मनुष्यों का क्या कहना ?
सत्य
युग के लोग कितना ज्ञानी थे और वे किस भगवान् की पूजा किया करते थे इस बात का वर्णन
श्रीमद्देवी भागवत, शीर्षक " त्रिविध कर्म, युग धर्म, तीर्थ, चित्तशुद्धि और तीर्थ
की महत्ता " स्कंध - 6, पेज नंबर - 414 में निम्न प्रकार है -
व्यास
जी बोले - " यह निश्चय है कि सत्य युग में ब्राह्मण वेद के पूर्ण विद्वान् थे
। उनके द्वारा निरंतर भगवती जगदम्बा की आराधना होती थी । भगवती का दर्शन करने के लिए
उनका मन सदा ललायित रहता था । गायत्री के ध्यान, प्राणायाम और जप में अपना सारा समय
व्यतीत करते थे। माया बीज का जप करना उनका प्रधान कार्य था । प्रत्येक गाँव में शक्ति
मंदिर का उद्घाटन हो - इस विषय की उनके मन में बड़ी उत्सुकता थी । सत्य,
दया और माया बीज का जप करना उनका प्रधान कार्य था । प्रत्येक गाँव में शक्ति मंदिर
का उद्घाटन हो - इस विषय की उनके मन में बड़ी उत्सुकता थी । प्रायः सब लोग सत्य, दया
और शौच से युक्त होकर अपना कार्य संपन्न करते थे । तत्वज्ञान के पारगामी उन ब्राह्मणों
द्वारा जो भी कर्म होता था, उसमें सत्य, शौच और
दया - ये तीन गुण निहित रहते थे।सत्य युग के क्षत्रियों का प्रधान कर्म था
- प्रजाओं का भरण - पोषण करना । वैश्य लोग सदा खेती, व्यापार और गौ की सेवा में तत्पर
रहते थे । उस पुण्यमय सत्ययुग के शूद्रों के
मन में सदा यही भावना रहती थी कि हम दूसरों की सेवा करें । इस श्रेष्ट युग में प्रायः
सभी वर्ण भगवती शक्ति जगदम्बा की पूजा करते थे ।
भगवान्
विष्णु किसकी पूजा किया करते हैं ? उनको कितना ज्ञान है ? इस बात का वर्णन श्रीमद्देवी
भागवत, शीर्षक " व्यास जी का वन में जाना, नारद जी का मिलना और देवी की उपासना के लिए कहना " स्कंध - 1, पेज नंबर - 28 - 29 में निम्न
प्रकार है -
ब्रह्मा
जी श्री हरि विष्णु जी से पूछा - प्रभु ! आप देवताओं के अध्यक्ष, जगत के स्वामी और
भूत, भविष्य एवं वर्तमान सभी जीवों के एक मात्र शाषक हैं । भगवन ! फिर आप क्यों तपस्या
कर रहे हैं और किस देवता की अराधना में ध्यानमग्न हैं ? मुझे असीम आश्चर्य तो यह हो
रहा है कि आप देवेश्वर एवं सारे संसार के शाषक होते हुए भी समाधी लगाए बैठे हैं ? ब्रह्मा
जी के विनीत वचन सुनकर भगवान् श्रीहरि ने उनसे कहा - " मुझे सब प्रकार से शक्ति के आधीन होकर
रहना पड़ता है। उन्हीं भगवती शक्ति का मैं निरन्तर
ध्यान किया करता हूँ । ब्रह्मा जी मेर जानकारी में इन भगवती शक्ति से बढ़कर दूसरा कोई
देवता नहीं हैं ।"
अब
भगवती देवी जगदम्बा विष्णु जी से कहती है कि - मैं ईश्वर नहीं हूँ, तुम मेरी पूजा मत करो । पूजा करनी है तो ईश्वर की पूजा करो, परब्रह्म
परमेश्वर की पूजा करो, समाधी लगाना है तो परब्रह्म परमेश्वर की लगाओ । देवी जगदम्बा
बोली - उस शुद्ध - सत्य - प्रधान माया के साथ जो स्थित रहता है, वही ईश्वर कहलाता है । उस ईश्वर को परब्रह्म की पूर्ण
जानकारी रहती है । वह सर्वज्ञानी, सबका उत्पादक तथा सब पर कृपा करने वाला है । (श्रीमद्देवी
भागवत, शीर्षक " हिमालय के घर देवी का
प्राकट्य " स्कंध - 7, पेज नंबर -
553)
तो
अब सबाल यह उठता है कि आपको किसकी पूजा करनी चाहिए ? जबाब अति सरल है । आपको परब्रह्म
की पूजा करनी चाहिए । आपको परब्रह्म के बारे
में बताएगा कौन ? केवल ईश्वर / ईश्वरपुत्र
/ आदिपुरुष / आदिश्री । आपको सारे संत, महात्माओं, ऋषि - मुनि एवं गुरूओं को छोड़ कर केवल ईश्वरपुत्र के पास जाना चाहिए। श्रीमद्भागवतम
महा पुराण में भविष्यवाणी किया गया है कि श्री नारद जी ने ध्रुव से कहा कि - (1) तीन
समय स्नान करके नित्यकर्म से निवृत होकर यथा विधि आसान बिछाकर स्थिर भाव से बैठना
(2) फिर रेचक, पूरक और कुम्भक - तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे - धीरे प्राण, मन
और इन्द्रिय के दोषों को दूर करके धैर्ययुक्त मन से परम गुरु श्रीभगवान का ध्यान करना
। (श्रीमद्भागवतम महा पुराण 4; 8 : 44) श्रीभगवान का धरना करते - करते जब चित्त
स्थिर और एकाग्र हो जाय, तब उन वरदायक प्रभु का मन ही मन इस प्रकार ध्यान करना कि वे
मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टि से निहारते हुए मंद - मंद मुस्कुरा रहे हैं । (श्रीमद्भागवतम महा पुराण, 4; 8 : 51) ध्रुव ने इस प्रकार 7 दिनों तक
ध्यान करते हुए मंत्र " ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " का जप किया और इस तरह ध्यान करते हुए 6 महीने
में ईश्वर का दर्शन पा लिया, मोक्ष भी पा लिया,
ध्रुवलोक का राज्य भी पा लिया तथा उसकी मन्नतें
भी पूरी हो गई । (श्रीमद्भागवतम महा पुराण,
4; 8 : 71 तथा 4; 9 : 2 - 5, तथा 4; 9 : 1
- 28 , तथा 4; 9 : 19 - 21 , तथा
4; 9 : 24 - 25) ध्रुव ने जिस वरदायक रूप प्रभु का ध्यान किया था उसका नाम " अरुण " है। (श्रीमद्भागवतम महा पुराण, 3; 25 : 34
- 35)
संसार में अरुण नाम के हजारो लाखों लोग हैं । तो सबल यह उठता है कि जो वरदायक रूप अरुण हैं उनकी पहचान कैसे होगी ? इस प्रश्न के जबाब में महर्षि वेदव्यास जी ने श्रीमद्भागवतम महा पुराण, 4; 15 : 9 - 10 में भविष्यवाणी किया है जो निम्न प्रकार वर्णित है :
" जगत गुरु ब्रह्मा जी देवता और देवेश्वरों के साथ पधारे। उन्होंने वेन कुमार पृथु के दाहिने हाथ में भगवान विष्णु की हस्त रेखाएँ और चरणों में कमल का चिन्ह देख कर उन्हें श्रीहरि का ही अंश समझा; क्योंकि जिसके हाथ में दूसरी रेखाओं से बिना कटा हुआ चक्र का चिन्ह होता है वह भगवानका ही अंश होता है । तो आप भी ईश्वर के वरदायक रूप अरुण को पहचानने के लिए - "सारे अरुण का दाहिने हाथ चेक कीजिये । जिसके दाहिने हाथ में केवल दो मुख्य रेखाएँ (हेड लाइन, लाइफ लाइन और हर्ट लाइन में से केवल दो रेखाएँ - हर्ट लाइन और लाइफ लाइन) जो दूसरी रेखाओं से बिना कटा हुआ चिन्ह होगा वह ईश्वर का वरदायक रूप अरुण है ।
संसार में अरुण नाम के हजारो लाखों लोग हैं । तो सबल यह उठता है कि जो वरदायक रूप अरुण हैं उनकी पहचान कैसे होगी ? इस प्रश्न के जबाब में महर्षि वेदव्यास जी ने श्रीमद्भागवतम महा पुराण, 4; 15 : 9 - 10 में भविष्यवाणी किया है जो निम्न प्रकार वर्णित है :
" जगत गुरु ब्रह्मा जी देवता और देवेश्वरों के साथ पधारे। उन्होंने वेन कुमार पृथु के दाहिने हाथ में भगवान विष्णु की हस्त रेखाएँ और चरणों में कमल का चिन्ह देख कर उन्हें श्रीहरि का ही अंश समझा; क्योंकि जिसके हाथ में दूसरी रेखाओं से बिना कटा हुआ चक्र का चिन्ह होता है वह भगवानका ही अंश होता है । तो आप भी ईश्वर के वरदायक रूप अरुण को पहचानने के लिए - "सारे अरुण का दाहिने हाथ चेक कीजिये । जिसके दाहिने हाथ में केवल दो मुख्य रेखाएँ (हेड लाइन, लाइफ लाइन और हर्ट लाइन में से केवल दो रेखाएँ - हर्ट लाइन और लाइफ लाइन) जो दूसरी रेखाओं से बिना कटा हुआ चिन्ह होगा वह ईश्वर का वरदायक रूप अरुण है ।