ईश्वर का वरदान देने वाला रूप
(आदिश्री अरुण)
जब कोई मनुष्य भगवान
नारायण का तप करता है तो भगवान नारायण प्रसन्न हो कर जिस रूप में वरदान देने के लिए अपना मनुष्य रूप रच कर मनुष्य के सामने आते हैं उस रूप को वरदायक रूप कहते हैं । ईश्वर के उस वरदायक रूप का नाम है अरुण । ईश्वर के इस वरदायक रूप का दर्शन केवल वही लोग कर पाते हैं जो
(1) ईश्वर की चरण
सेवा में प्रीति रखते हैं (2) ईश्वर की प्रसन्नता के लिए समस्त कार्य करते हैं (3) लोगों में ईश्वर के प्राकर्मों की चर्चा किया करते हैं और (4) मोक्ष की प्राप्ति अथवा ईश्वर के साथ एकीभाव की भी इच्छा
नहीं रखते ।
उपरोक्त सत्य की पुष्टि में श्रीमद्भागवतम महा पुराण में ईश्वर ने कहा कि " मेरी चरण
सेवा में प्रीति रखने वाले और मेरी प्रसन्नता के लिए समस्त कार्य करने वाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दूसरे से मिल कर प्रेम पूर्वक मेरे प्राकर्मों की चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविन्द से युक्त मेरे परम सुन्दर और वरदायक दिव्य रूपों की झांकी (दर्शन) करते हैं, जिसके दर्शन के लिए बड़े - बड़े तपस्वी भी ललायित रहते हैं । " (श्रीमद्भागवतम
महा पुराण 3; 25: 34 - 35)
ईश्वर के दो रूप हैं - (1) ऐश्वर्य रूप
और (2) माधुर्य रूप । ईश्वर के माधुर्य रूप का नाम है अरुण ।
इसको ईश्वर का मनोहर रूप भी कहा गया है । ईश्वर के मनोहर रूप अरुण-नयन और उनकी मधुर वाणी से युक्त उनके माधुर्य रूप में उनका मन और इन्द्रियाँ फस जाती है, ऐसी भक्ति नहीं चाहने पर भी ईश्वर उन्हें परमपद की प्राप्ति करा देते हैं ।
इस सत्य
की पुष्टि में ईश्वर
ने श्रीमद्भागवतम महा पुराण में
खोलकर कहा कि " दर्शनीय अंग
- प्रत्यंग, उदार हास - विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपों की माधुरी में (अर्थात माधुर्य रूप में) उनका मन और इन्द्रियाँ फस जाती है ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हें परमपद की प्राप्ति करा देती है।" (श्रीमद्भागवतम
महा पुराण 3; 25: 36) लोगों की
अविद्या अर्थात अज्ञान नष्ट हो जाने पर सत्य लोक की भोग-सम्पत्ति तथा स्वयं प्राप्त होने वाली अष्ट सिद्धि और वैकुण्ठ लोक के ऐश्वर्य की
भी इच्छा नहीं करते फिर भी ईश्वर के धाम में पहुँचने पर उनको उपरोक्त आठों सिद्धियाँ और सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं । जो मनुष्य इन दिव्य भोगों में नहीं फसते उन्हें ईश्वर का काल चक्र भी नहीं ग्रासते हैं । ईश्वर ने श्रीमद्भागवतम महा पुराण में
उपरोक्त सत्य की पुष्टि में खोलकर कहा कि " अविद्या की
निवृति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोगसम्पत्ति, भक्ति के प्रवृति के पश्चात स्वयं प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठ लोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम में
पहुंचने पर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती है । जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद और इष्टदेव हूँ - वे मेरे ही आश्रय में रहने वाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठ धाम में पहुँच कर किसी प्रकार भी इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा काल चक्र ही ग्रस सकता है। (श्रीमद्भागवतम महा पुराण 3; 25: 37 - 38)
ईश्वर ने श्रीमद्भागवतम महा पुराण में स्वयं कहा कि - " जो लोग
इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जाने वाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहों को भी छोड़ कर अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं उन भक्तों को मैं मृत्यु रूप संसार सागर से पार कर देता हूँ । मैं साक्षात् भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का भी आत्मा हूँ । मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता । मेरे भय से वायु चलती है, मेरे भय से सूर्य तपता है, मेरे भय से इन्द्र वर्षा करता है और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत होता है । " (श्रीमद्भागवतम
महा पुराण 3; 25: 39 - 42) उन्होंने साफ - साफ़ लब्जों में कहा कि " संसार में
मनुष्य के लिए सबसे बड़ा कल्याण प्राप्ति का यही उपाय है कि मनुष्य का चित्त तीब्र भक्ति योग के द्वारा मुझ में लग कर स्थिर हो जाय ।
(श्रीमद्भागवतम महा पुराण 3; 25 : 44)