आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 30; MAHA UPADESH OF AADISHRI PART – 30


आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 30

(आदिश्री अरुण)

आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 30; MAHA UPADESH OF AADISHRI PART – 30
हे मनुष्य ! साधारण दृष्टि से देखने पर एक नगर में दो आने वाले रास्ते हों - एक पूरब से आरहा हो तथा दूसरा दक्षिण से आरहा हो परन्तु  जिस तरह वो दोनों रास्ते अलग - अलग दिशाओं से आते हुए एक ही नगर में पहुंचते हैं ठीक उसी तरह ज्ञान योग और कर्म योग दो अलग - अलग साधन हैं  परन्तु उनका लक्ष्य एक ही है इसलिए दोनों मार्गों से साधक पूर्ण ब्रह्म को ही प्राप्त  करता  है। इसलिए ज्ञान योग और कर्म योग दोनों ही योग उत्तम हैं परन्तु ज्ञान पर आधारित  सांख्य योग की साधना कठिन है इसके मुकाबले  कर्म योग की साधना आसान है     


हे मनुष्य ! मैंने पूर्व काल में भी इस लोक में रहने वालों के लिए दो प्रकार की निष्ठा कही थी ।  ज्ञानियों के लिए अथवा सन्यासियों के लिए ज्ञान योग की और योगियों की अर्थात कर्मयोगियों के लिए कर्म योग की  । ये दोनों रास्ते प्राणी को ईश्वर तक ले जाते हैं । गीता अध्याय 3 के श्लोक 3 में  ईश्वर ने कहा कि - हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है । उनमें सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है ।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 4 में  ईश्वर ने कहा कि -   मनुष्य न तो कर्मों को आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठ को प्राप्त होता है और न कर्मों को केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्य योग को ही प्राप्त होता है । तो अब प्रश्न यह उठता है कि  ज्ञान योग हो या कर्म योग हो दोनों ही परिस्थितियों में प्राणी कर्म से छूट नहीं सकता ; फिर कोई योगी निष्कर्मता कि अवस्था   को कैसे पा सकता है ? जबाब अति सरल है । जब प्राणी अपने समस्त कर्मों को  निष्काम भाव के द्वारा ईश्वर को समर्पित कर देता है तो ऐसे कर्मों से कोई फल उत्पन्न  नहीं होता । इस प्रकार वह प्राणी अपने सारे कर्म ईश्वर को समर्पित करके ईश्वर में लीन हो कर स्वयं निष्कर्म हो जाता है  । इस ब्रह्मलीन अवस्था का नाम  निष्कर्मता है ।
लेकिन गीता अध्याय 3 के श्लोक 5 में ईश्वर ने कहा कि "कर्मों के स्वरुप का त्याग हो ही नहीं सकता । चुकि कोई भी प्राणी क्षण मात्र के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता । सभी  लोग प्रकृति से उत्पन्न हुय्र गुणों द्वारा प्रति क्षण कर्म करने के लिए मजबूर है ।"  इस लिए जब प्राणी कर्म करने पर विवश है तो उसे चाहिए कि कर्म इस प्रकार करे जैसे कोई यज्ञ  किया जाता है  । यज्ञ लोक कल्याण के लिए भी किया जाता है और ईश्वर की आराधना के  लिए भी किया जाता है  । इसलिए जब कर्म करना ही है तो अपने सारे कर्म या तो लोक कल्याण के लिए कर या ईश्वर के लिए कर  । इससे तेरे कर्म एक यज्ञ के सामान  पवित्र, कल्याणजनक और दिव्य हो जाएँगे  । इसलिए कर्म को तू यज्ञ समझकर करता जा तो तू कर्म बंधन से मुक्त रहेगा 
क्योंकि  हे मनुष्य ! यह जो ज्ञात कर्म किया जाता है  उसको छोड़ कर बाकि सब प्रकार के कर्म का बन्धन मनुष्य को बाँध लेता है। लेकिन गीता अध्याय 3 के श्लोक 28 में ईश्वर ने कहा कि " जो समस्त कर्म ईश्वर के अर्पण होते हैं - ऐसे सन्यासयोग से युक्त चित्त वाला तू शुभ - अशुभ फल रूप बन्धन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर ईश्वर को ही प्राप्त होगा। 
मन एकाग्र करके ज़रा सोचो कि मनुष्य के लिए ईश्वर ने कितनी अच्छी बात कही है कि यज्ञात (यज्ञ के लिए ) कर्म कर । हे मनुष्य  ! ईश्वर स्वयं यज्ञ पुरुष हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य जब परमात्मा को अपना तन - मन - धन  - जीवन सर्वश्व  समर्पित कर देता है और प्रत्येक प्राणी मात्र में परमात्मा का दर्शन करके लोक कल्याणकारी कर्म करता है तब वो यज्ञ करता है । हे मनुष्य  ! वेद में  12  प्रकार के यज्ञों का वर्णन है जिनके  द्वारा संसार की सारे वस्तुएं प्राप्त हो जाती है । सारे यज्ञों के द्वारा प्राणी एक मात्र भगवान नारायण की ही पूजा करते हैं क्योकि समस्त यज्ञ भगवान नारायण की प्रसन्नता के लिए ही हैं तथा उनसे जिन लोकों की प्राप्ति होती है वे भी भगवान नारायण में ही कल्पित हैं । सब प्रकार के योग भी भगवान नारायण की प्राप्ति हेतु ही हैं  । सारी तपस्याएँ  भगवान नारायण की ओर ही ले जाने वाली हैं । ज्ञान भी भगवान् नारायण के द्वारा ही जाने जाते हैं  । समस्त साध्य और साधनों का पर्यवसान भगवान नारायण में ही है  । (श्रीमद्भागवतम  महा पुराण 2 ; 5:15 -16 )    
हे मनुष्य ! यज्ञ करने से पहले सर्व प्रथम यह जान लीजिये कि यज्ञ क्या है या यज्ञ किसको कहते हैं ? ध्यान से सुनो  । अपने किसी श्रेष्ट वस्तु को अपने धन - दौलत   को, अपने किसी विशिष्ट भावना को बल्कि अपने किसी विशिष्ट कामना को भगवान नारायण के चरणों में समर्पण कर देना - इसी को यज्ञ कहते हैं  । अपने प्रिय वस्तु की कुर्वानी यही यज्ञ कि मूल भावना है ।  इसलिए  शास्त्र कहते हैं कि यज्ञ में आहुति देने के पश्चात जो अन्न बच जाता है उसे खाने वाला मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । और जो लोग केवल अपना ही पेट भरने की भावना से अन्न पकाते हैं  वे तो पाप का ही भोजन करते हैं । (गीता  3:13)
हे मनुष्य ! यज्ञ करने से पहले सर्व प्रथम यह जान लीजिये कि यज्ञ क्या है या यज्ञ किसको कहते हैं ? ध्यान से सुनो  । अपने किसी श्रेष्ट वस्तु को अपने धन - दौलत   को, अपने किसी विशिष्ट भावना को बल्कि अपने किसी विशिष्ट कामना को भगवान नारायण के चरणों में समर्पण कर देना - इसी को यज्ञ कहते हैं  । अपने प्रिय वस्तु की कुर्वानी यही यज्ञ कि मूल भावना है ।  इसलिए  शास्त्र कहते हैं कि यज्ञ में आहुति देने के पश्चात जो अन्न बच जाता है उसे खाने वाला मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । और जो लोग केवल अपना ही पेट भरने की भावना से अन्न पकाते हैं  वे तो पाप का ही भोजन करते हैं । (गीता  3:13)
पृथ्वी के अलग - अलग प्राणी  अलग - अलग प्रकार से अपनी - अपनी   निष्ठा से अलग - अलग देवताओं के लिए हवन इत्यादि करते हैं - ऐसा हवन करना भी यज्ञ है ।
कुछ लोग परम ज्ञानी होते हैं वे  अपने धन आदि का दान करते हैं और  द्रव्य को अग्नि में आहुति देते हैं जिसके चलते उन्हें धन की प्राप्ति   होती है उसको द्रव्य यज्ञ कहते हैं ।
कई लोग निःस्वार्थ भाव से विद्या दान करते हैं उसे ज्ञान यज्ञ कहा जाता है ।
कई लोग  परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में अभेददर्शन रूप यज्ञ के द्वारा ही आत्म रूप यज्ञ का हवं किया  करते हैं 
कई लोग प्राणायाम पर आधारित प्राण और अपान की गति को रोक कर प्राणों को प्राणों में ही हवं किया करते हैं 
कुछ लोग श्रोत्र आदि समस्त  इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं 
कुछ लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन किया करते हैं 
कुछ लोग इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं 
कितने लोग तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं 
कितने लोग योग रूप यज्ञ करने वाले हैं 
कितने लोग स्वाध्यायरूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं 
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जानेयोग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्म रूप करता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना  रूप क्रिया भी ब्रह्म है - उस न्रह्म कर्म में में स्थित रहने वाले प्राणी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है ।
हे मनुष्य ! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ न करने वाले पुरुष के  लिए तो यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है , फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ? (गीता  4:31) 


Post a Comment

और नया पुराने