आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 29; MAHA UPADESH OF AADISHRI PART – 29


आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 29

(आदिश्री अरुण)

आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 29; MAHA UPADESH OF AADISHRI PART – 29
हे मनुष्य ! जिस काल में प्राणी मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली - भांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहता है उस काल में वह स्थितप्रज्ञ  कहा जाता है। (गीता 2 : 55 ) लेकिन हे 
मनुष्य ! कामना शक्ति प्राणी  के लिए उस समय श्राप बन जाता है जब इस शक्ति का दुरपयोग किया जाता है  



इसलिए मैं आपको कर्मयोग की साधना के द्वारा आसक्ति को त्यागने के लिए सलाह दे रहा हूँ  यदि मनुष्य आसक्ति का त्याग नहीं किया तो मनुष्य का पतन निश्चित है क्योंकि आसक्ति तीब्र होने पर कामना की उत्पत्ति होती है और यही कामना मनुष्य को सर्वनाश की ओर ले जाता है।


आप यह कह सकते हैं कि आसक्ति  सर्वनाश का मूल कारण है    यही कारण है कि मैं आपको आसक्ति का 
त्याग करने के लिए कह रहा हूँ , इसलिए मैं आपको स्थितप्रज्ञ होने के लिए कह रहा हूँ क्योंकि स्थितप्रज्ञ की स्थिति निष्काम कर्म योग  की चरम अवस्था है

हे मनुष्य !  स्थितप्रज्ञ को इस प्रकार समझा जा सकता है  विशाल और अथाह का सागर स्वभाव स्थितप्रज्ञ मनुष्य की भाँति ही होता है हे मनुष्य ! नदी में यदि अधिक पानी आजाय तो धरती पर बाढ़ आजाती है उसकी तूफानी लहड़ें  बाँध को तोड़ कर चरों ओर तबाही मचा देती है। यही हाल एक छुद्र मन वाले व्यक्ति का होता है।  थोड़ा सा धन थोड़ी सी सफलता उसे हजम नहीं होती । वह धन और सफलता के नशे में चूर मर्यादा तोड़ कर एक ओछे इंसान की तरह हरकतें करने लगता है  और स्थिति प्रज्ञ मनुष्य एक सागर की भाँति होता है जिसमें चारों ओर से नदियों का जल निरन्तर जमा होता रहता है । परन्तु सागर पहले की भाँति  शांत रहता है । नदियों का जल उसकी गहराई में डूब जाता है और सागर कभी भी अपना किनारा नहीं तोड़ता है । उसके अन्दर जल का स्तर वही मौजूद रहता है और यही  स्थितप्रज्ञ मनुष्य की अवस्था होती है ।   

स्थितप्रज्ञ तो ऐसा सागर - २, ज्ञानी जिसकी थाह न पाए
सारे भोग उसी में डूबे,  उसको भोग डूबा नहीं पाए
काम को वो निष्काम करे और योग से मुख नहीं मोड़े रे
कर्म किया अर्पण मुझमें कर, मुझसे नाता जोड़े रे
सागर सबको मुझमें समोए, मुझसे नाता नहीं तोड़े रे
हो नहीं पुनर्जन्म मैं सबका स्वामी, मर्यादा नहीं छोड़े रे - २

इसी तरह  सब प्रकार के भोग स्थितप्रज्ञ मनुष्य में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न करने में असमर्थ हो कर उसी में समा जाते हैं । अर्थात  स्थितप्रज्ञ मनुष्य समस्त भोगों का उपभोग करते हुए भी आसक्ति से मुक्त रहते हैं। हे मनुष्य ! ऐसे स्थितप्रज्ञ प्राणी को शान्ति प्राप्त होती है । ऐसे स्थितप्रज्ञ  प्राणी ही जगत का कल्याण करते हैं । सामान्य मनुष्य तो भोग पदार्थों के पीछे दौड़ते हुए अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर देता है । परन्तु स्थितप्रज्ञ मनुष्य की जीवन यात्रा जन कल्याण का उद्देश्य रखती है ।

हे मनुष्य ! भगवान कृष्ण के कथनानुसार स्थितप्रज्ञ मनुष्य आसक्ति से मुक्त रहते हैं। परन्तु जब कोई मनुष्य संसार में रह कर संसार को भोग रहा हो तो देखने वाले तो उन्हें भोगी ही समझेंगे न । लेकिन वास्तविकता यह है कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य को इसकी चिन्ता नहीं होती है कि कोई सांसारिक मनुष्य उसे क्या समझता है ? वो संसार के भोग अनासक्त भाव से भोगता है । ऐसा ध्येय रखने वाला मनुष्य यदि किसी नर्तकी का नृत्य भी देख रहा हो तो उसको भी वह प्रभु की लीला समझ कर देखता है। तब सबाल यह उठता है कि कोई मनुष्य यह कैसे जान सकता है कि कोई व्यक्ति आसक्ति का मरा हुआ हो या स्थितप्रज्ञ ? वो भोगी है या योगी ? हे मनुष्य ! जैसे चन्द्रमा का असल रूप रात के अँधेरे में दीखता है ठीक वैसे ही एक असली योगी का प्रकाश रात के अँधेरे में प्रकट होता है । क्योंकि जिस समय सारा संसार सोता है उस समय योगी अपने ह्रदय में ज्ञान का दीप जला कर ईश्वर की प्राप्ति का साधना करता है ।  
   
हे मनुष्य ! सामान्य मनुष्य रात्रि  का अन्धकार होने पर सो जाता है तथा सूर्योदय होने पर जाग जाता है  परन्तु योगी की दृष्टि में दिन का सोना - जागना महत्वपूर्ण नहीं है । कर्म योगी ज्ञान के प्रकाश को ही दिन तथा अज्ञान को ही रात मानता है।  हे मनुष्य ! विषयों के बारे में अज्ञान रात्रि के अन्धकार के समान  है। सांसारिक मनुष्य रात्रि के समान अज्ञानी नाशवान सांसारिक सुख उपभोगों में व्यस्त रहते हैं । ज्ञानी और योगी जागते हैं  और ईश्वर का चिन्तन करते हैं ।

सबके लिए जो रात्रि से, संसारी नींद में सो के गमाए
योगी  ज्ञानी रात में जागे, ध्यान धरे और अलख जगाए
एक ही रात्रि  को  भोगी योगी - २, अपने - अपने ढंग से बिताए
एक ही रात्रि  को  भोगी योगी, अपने - अपने ढंग से बिताए
भोगी सोए योगी जागे, भोगी खोए योगी पाए   
भोगी खोए योगी पाए .......

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