ईश्वर का दर्शन कैसे होगा ?
(आदिश्री अरुण)
हे
भटके हुए लोगों
! मनुष्य अज्ञान के अँधेरे
में अपने अहंकार
का हाथ पकड़े
भटक रहा है
। इसलिए वह
ईश्वर में पूर्ण
रूप से समर्पण
नहीं कर पाता
है । अर्थात
अज्ञान ही समर्पण
के रस्ते में
सबसे बड़ी बाधा
है । तो
सबाल यह उठता
है कि ज्ञान
प्राप्त करने का
सबसे बड़ा साधन
क्या है ? ज्ञान
प्राप्त करने का
सबसे बड़ा साधन है
ढ़ाई अक्षर का
श्रद्धा ।
हाँ मैं आपसे
सच कहता हूँ
कि ज्ञान प्राप्त करने का
केवल एक ही
साधन है - श्रद्धा ।
श्रद्धा
के बीज से
ही विश्वास का
अंकुर फूटता है
, और आस्था का
पौधा लहलहाने लगता
है । प्रेम
वह जल है
जिससे पौधे
की सिचाई की
जाती है ।
जिससे पौधे हरा
भरा, स्वस्थ और
फूल देने योग्य
बन जाते है
। फिर
इसी पौधे पर
ज्ञान के फूल
खिलते हैं ।
ज्ञान के फूल
से मनुष्य ईश्वर
को ढूंढते हैं
और उसे ईश्वर में दृढ भक्ति हो जाती है
। ईश्वर में दृढ भक्ति होने से ईश्वर प्रशन्न हो जाते हैं और वे साकार रूप में मनुष्य
के सामने उपस्थित हो जाते हैं और मनुष्य ईश्वर
का दर्शन पा जाते हैं।
इसलिए
आप यह ठोक
कर कह सकते
हैं कि श्रद्धा
के बिना भक्ति
नहीं हो सकती
है । आप
यह भी कह
सकते हैं कि
श्रद्धा ही भक्ति
का बीज है
। मनुष्य के
लिए श्रद्धा ही
वह दिव्य नेत्र
है जिनके द्वारा
एक अन्धा मनुष्य
भी ईश्वर
के स्वरुप का
दर्शन कर सकता
है । यह
श्रद्धा ही तो
है जो
मनुष्य को एक
पत्थर की मूर्ति
में भी ईश्वर का रूप
दिखा देती है
। हे मनुष्य
! यदि श्रद्धा न
हो तो ईश्वर
सामने भी खड़े
हों तो नास्तिक के आँखों
को भगवान नहीं
कुछ और ही
दिखाई देगा ।
जैसे दुर्योधन ने
भगवान कृष्ण
को मयाबी कहा
। मुक्ति प्रदान
करने वाला चतुर्भुज
रूप कंस को
उसका दुश्मन जान
पड़ता था ।
श्रद्धा
वह सीधा और सरल रास्ता है जो मनुष्य को प्रेम
और शांति की ओर ले जाता है । इसलिए श्रद्धा द्वारा मनुष्य निष्ठावान बन जाता
है । और जिस मन में श्रद्धा नहीं होती वह मन संशय और शक के अँधेरे में इस प्रकार भटक
जाता है कि न तो उसे इस लोक में सुख मिलता
है और न उसे परलोक में ही शान्ति प्राप्त होता है।
हे
मनुष्य ! जगत में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो हमारे मुख से कल्कि अवतार के आगमन की बात
को सुन - सुन कर उनका मन शांति को खोता जा
रहा है। यदि उनका मन अशांत हो रहा है तो उसमें
विचित्र क्या है ? मेरे उपदेश का मुख्य उद्देश्य आपके मन को शांति देना है , आपके व्याकुलता
को मिटा कर शांति देना है , आपको मृत्यु से बचा कर अनन्त जीवन देना है , आपके आवागमन
को मिटा कर मुक्ति देना है, आपके पड़ेशानियों को मिटा कर शांति देना
है, आपके आंशुओं को पोछ कर आशीष का वरदान देना है । परन्तु जगत के लोगों पर इसका उल्टा
असर हो रहा है। उनका शांत मन अशांत होता जा रहा है । ऐसा इसलिए हो रहा क्योंकि यदि
श्रद्धा न हो तो सुख मिल ही नहीं सकता है । लोगों के मन में श्रद्धा का आभाव है । इसलिए
मनुष्य मेरे उपदेश के दर्पण में अपने आप को देख कर दुखी हो रहे हैं । अगर यदि ऐसा ही
क्रम चलता रहा तो ऐसे लोगों को सुख - शांति कभी नहीं मिलेगी क्योंकि अब धर्म की स्थापना
होना है, अधर्म पर चलने वालों का नाश होना है। नाश होने के क्रम में संसार के पूरी
जनसंख्या का तीन चौथाई भाग को मिट जाना है और
शेष बचे लोगों को सत्य युग की दुनिया में प्रवेश करना है । (धर्मशास्त्र, जकर्याह 13 : 8)
यह
100 % सच है
कि जिस मन
में श्रद्धा नहीं
होती वहां शंका
होती है ।
जैसे जहाँ उजाला
नहीं होता वहाँ
अँधेरा ही होता
है। न श्रद्धा
होगी न आस्था
होगी, ऐसे में
मनुष्य आस्तिक नहीं
रहेगा बल्कि
वह नास्तिक बन
जाएगा, और वो
कदापि सुखी नहीं
हो सकता ।
हे
मनुष्य ! संशय के
अंधकार को ज्ञान
के प्रकश से
जो नष्ट कर
देता है और
ज्ञान द्वारा प्राप्त
बुद्धि की प्रेरणा
से अपने
आपको ईश्वर में
समर्पित कर देता
है उसे
कर्म नहीं बाँध
सकते । इसलिए
हे मनुष्य ! अज्ञान
के कारण जो
संशय तेरे हृदय
में उत्पन्न हो
रहे हैं उन्हें ज्ञान और
विश्वास कि तलवार
से काट कर
कर्म करने के
लिए कमर कस
कर खड़ा हो
जा ।
आप
मुझे कहते
हो कि बेचारा
प्राणी इधर - उधर भटक
रहा है, रास्ता
भूल पड़ा है
, तुम्हारे मन में बेचारे
मनुष्य की सहायता
करने की विचार
कभी नहीं आता
? क्या आपका मन
ऐसा कभी नहीं
करता कि आगे बढ़कर उसका
हाथ थाम लूँ
? उसे सच्चा रास्ता
दिखाऊं ? मैं यह
कहता हूँ कि
मन बिलकुल करता
है। और
मैं मनुष्य की सहायता भी करता
हूँ । मैं
सहायता अवश्य
करता हूँ , अपने
भक्त को मैं
कभी भी बेसहारा
नहीं छोड़ता ।
परन्तु मनुष्य मेरी ओर
सहायता के लिए
देखे तब तो
? मेरी ओर बढे तब तो मैं उसकी
सहायता करूँ न
? परन्तु वो मेरी
ओर बढ़ने के
बजाय अपने अहंकार
में डूबा रहता
है । अपने
बाजुओं के
बल के घमंड
में पड़ा रहता
है। वह इस
भ्रम में पड़ा
रहता है कि
संसार में उससे
बढ़कर कोई नहीं
है ? वह तो
केवल अपनी बुद्धि
और बल पर
ही भरोसा करता
है। उसे अपने
बाजुओं के बल
पर अपने परमात्मा
से अधिक विश्वास
होता है ।
मनुष्य
किसी की सहयता
मुफ्त में नहीं
करता बल्कि बदले
में उसे कुछ
न कुछ चाहिए
। लेकिन मैं
तो बदले में
कुछ भी नहीं
मांगता । मैं
मनुष्य से एक
श्रद्धा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहता, कुछ भी नहीं मांगता । श्रद्धा
और भक्ति भाव
से एक फल,
एक फूल, तुलसी की
एक पत्ती, जल
का एक बून्द,
चावल का एक
दाना ही सही
, मैं उसको भी
भक्त की श्रद्धा
से कहीं अधिक
श्रद्धा से स्वीकार
कर लेता हूँ
। अरे ! यदि
इतना भी न
हो सके तो
श्रद्धा और भक्ति
का एक आंशू
ही सही मैं उसे
भी स्वीकार कर
लेता हूँ ।
श्रद्धा में डूबे
उस एक अंशू
में मेरा
सारा स्तीत्व सराबोर
हो जाता है
, भक्ति अथवा पश्चाताप
का ये आंशू
चाहे लाखों पाप
करने के बाद
अंतिम क्षण में
क्यों न बहाया
गया हो, मैं
उस अनुपम भेंट
को भी स्वीकार
कर लेता हूँ
। और
मनुष्य के सारे
पापों को उस
आंशू से धोकर
एक नवजात शिशु
की तरह निष्पाप कर देता
हूँ । उसका
कल्याण करता हूँ।
उसे मुक्ति देता
हूँ ।