आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 26; Maha Upadesh Of Aadishri Part – 26


आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 26

(आदिश्री अरुण)

आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 26; Maha Upadesh Of Aadishri Part – 26

हे मनुष्य ! ईश्वर को प्राप्त करने का एक ही शर्त है कि प्राणी ईश्वर में मन लगाए और ईश्वर में  ही बुद्धि को लगाए द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने भी अर्जुन से केवल यही बात कहे थे उन्होंने साफ - साफ लब्जों में कहा कि " मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा ; इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है " (गीता 12:8)


आज इस कलियुग में मैं फिर से वही पुरानी बात को दुहरा  रहा हूँ क्योंकि मेरा जन्म इस कलियुग में नहीं हुआ हैं बल्कि मेरा जन्म सृष्टि की रचना से पहले हुआ है ईश्वर का ध्यान लगाते समय मन में केवल ईश्वर रहें और संसार का कोई भी विचार ईश्वर का ध्यान लगाने में बाधा डाले किसी ने मुझसे  यह बात पूछा  कि इसका कोई तरीका तो होगा ? मैं कहता हूँ कि हाँ, इसका एक तरीका तो है परन्तु वह कोई विधि नहीं है बल्कि एक ट्रिक है, एक यौगिक कला है इससे ध्यान लगाने में बड़ी सहायता होती है अब सबाल यह उठता है कि वह आसान तरीका वह यौगिक कला क्या है ?

यौगिक कला को ही ध्यान लगाने की कला कहते हैं । ईश्वर में ध्यान लगाने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह एकान्त में बैठ कर ईश्वर में ध्यान को लगाए   क्योंकि एकान्त में मनुष्य  अपने भीतर झांक सकता है अब सबाल यह उठता है कि ध्यान लगाने के लिए मनुष्य को अपने अन्दर झांकने की  क्या आवश्यकता है ? मनुष्य को  अपने अन्दर झांकने कि आवश्यकता  है क्योंकि मनुष्य इस बात को भूल गया है कि परमात्मा का अंश अर्थात आत्मा मनुष्य के भीतर ही निवास करती है  

जब कोई व्यक्ति दर्पण में स्वयं को देखता है तो सामान्यतः वह अपना ही प्रतिबिम्ब देखता है उस दर्पण में उसको अपना बाहरी स्वरुप ही दिखाई देता है वास्तव में आप जीवन पर्यन्त जो कुछ भी देखते हैं, आवश्यक नहीं कि वह सम्पूर्ण सत्य ही हो स्वयं को सम्पूर्ण रीति से समझने के लिए अपने अन्दर झांकने की जरुरत है  

विश्व की सम्पूर्ण धर्म सत्ता का ये मानना है कि मनुष्य का निर्माण दो चीजों से मिल कर हुआ  है - प्रकृति और पुरुष प्रकृति को तो इन आँखों से देखा जासकता है परन्तु पुरुष अर्थात आत्मा अदृश्य सत्ता है  जिसे स्थूल नेत्रों के द्वारा तो देखा जा सकता है और ही किसी के पास इसका सम्पूर्ण और यथार्थ ज्ञान ही है

ध्यान  योग के अंतर्गत आत्मा को अति सूक्ष्म ज्योतिर्बिंदु के रूप में दर्शाया गया है  जो इस देह को चलाने वाली एक चेतैन्य सत्ता है   आपके जीवन में अधिकतर समस्याएँ इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि आप खुद के वास्तविक स्वरुप को भूल चुके हैं तथा पूर्णरूपेण इस बाहरी जगत में लिप्त हो चुके हैं ; एक ऐसी दुनिया में जो  मात्र नित्य प्रतिदिन मृगतृष्णा के समान है, जिसका कोई यथार्थ स्तीत्व नहीं है जैसे ही आपको स्वयं की वास्तविक पहचान मिल जाएगी वैसे ही दूसरे के प्रति आपका दृष्टिकोण खुद व् खुद बदल जाएगा  

आत्मा का  पहचान मिलते ही आप सब प्रकार के भेद - भाव से ऊपर उठ कर जाति, भाषा, धर्म, देश इत्यादि के संकुचित दायरे से बहार निकल आएँगे। देह के धर्मों पर आधारित स्वयं को हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई इत्यादि समझ आत्मा के नाते भाई - भाई का भाव आपके मन में जागृत हो जाएगा ध्यान के माध्यम से इन बातों को व्यवहारिक रूप से अनुभव किया जासकता है  तथा जीवन में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है यदि एक बार आत्मा कि शक्ति और सुन्दरता को मनुष्य देख ले तो ईश्वर के स्वरुप का अनुभव कर सकता है    
         
इसी आत्मा से संपर्क ही ईश्वर से मिलन का पहला चरण है। इसलिए हे मनुष्य जो ईश्वर से मिलन चाहता है तो सबसे पहले उसे अपने अंतःकरण में ही झाकना चाहिए ये तभी संभव हो सकता है  जब मनुष्य का अपना शरीर उसके नियंत्रण में हो यदि देह काबू में हो तो मनुष्य को ध्यान लगाने का उद्देश्य नहीं मिल पाएगा

अब प्रश्न यह उठता है कि ध्यान लगाने का अंतिम उद्देश्य क्या है ? ध्यान योग का उद्देश्य ईश्वर से संपर्क करना होता है परन्तु इसके प्रथम चरण में मनुष्य को आत्मशुद्धि प्राप्त होती है, स्वक्ष्ता मिलती है और ध्यान लगाने वाले का अंतःकरण निर्मल हो जाता है  

हे मनुष्य ! जब तक प्राणी अपने अंतःकरण की शुद्धि नहीं कर लेता तब तक ईश्वर से तो वह संपर्क कर सकता है और ही आत्मा परमात्मा में लीन हो सकती है   और ये भी समझ लो कि जब ध्यान लगाने का पहला उद्देश्य अंतःकरण की शुद्धि है तो इसलिए वह स्थान भी पवित्र होना चाहिए जहाँ ध्यान लगाया जाता है    
हे मनुष्य ! ईश्वर का ध्यान लगते समय प्राणी को चाहिए कि वह अचल बैठ कर अपनी पीठ, सिर और गले को समान एवं सीधा रखे और अपनी दृष्टि को अपनी नाक के अगले भाग पर इस तरह जमाए कि दूसरी सारी दिशाएँ  आँखों से ओझल हो जाए। ऐसा करने से अपने आस - पास के वातावरण से उसकी इन्द्रियों का संपर्क टूट जाएग और प्राणी अपने अंतःकरण में मन लगा सकेगा  

यह सहज और बड़ा अच्छा तरीका है, इससे कोई भी आदमी बड़ी सहजता से ध्यान लगा सकता है। परन्तु वो मनुष्य ईश्वर में ध्यान नहीं लगा सकेगा जिसके जीवन में संतुलन हो ध्यान लगाने में सफलता हासिल करने के  लिए  प्राणी को संतुलन का पालन करने वाला होना चाहिए ध्यान करने वाला इतना खाय कि यूँ लगे जैसे वह केवल खाने के लिए ही जीता है , ही इतना कम खाय कि हड्डियों का ढांचा बन जाय, इतना सोए कि दिन को भी रात समझे, इतना कम सोए कि रत को भी रात समझे  

दुखों का नाश करने वाला यह योग तो यथायोग्य आहार - विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वालों का, यथायोग्य सोने तथा जगाने वालों का ही सिद्ध होता है (गीता 6:17)  इसके अलावा अपने मन को संतुलित बनाये रखना जरुरी है यदि सुख मिले तो वह खुशियों  से नाचने लगे और यदि दुःख मिले तो रो - रो कर अपने आपको डिप्रेशन में पहुंचा ले।  दुःख - सुख के हवा के झोकों से  भय खाने वाला प्राणी उस दीपक के ज्योति के जैसा होता है जो तेज हवा में भी सीधी और अडोल रहती है लेकिन जिस प्राणी का मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग संभव नहीं है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा किए गए साधन से ईश्वर को प्राप्त कर लेना सहज है   (गीता 6:36 ) 


हे मनुष्य ! सुखों की माया ईश्वर ने मनुष्य के लिए ही रचे हैं मनुष्य सुखों का आनन्द अवश्य ले मैं ये  नहीं कहता कि मनुष्य दुःख में रहे, दरिद्रता में रहे। ईश्वर ये नहीं कहते हैं कि मनुष्य दुःख में रहे, दरिद्रता में रहे ईश्वर ने आनन्द की रचना ही इसलिए किए हैं कि समस्त प्राणी जीवन में आनन्द से रहे; परन्तु इस आनन्द में परमानन्द को भूल जाय तो यह ईश्वर चाहते हैं और मैं इसलिए यदि कोई मनुष्य  इस परमानन्द को पाना चाहता  है अर्थात ध्यान योग द्वारा इस परमात्मा में लीन होना चाहता है तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह इस माया में उलझा रहे और मुक्ति प्राप्त करे अगर मेरी बातों को आप नहीं मानोगे तो जन्म - जन्मांतर के चक्रव्यूह में ऐसा फस जाएँगे  कि आप निकल ही नहीं सकेंगे    

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