आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 27; MAHA UPADESH OF AADISHRI PART – 27


आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 27

(आदिश्री अरुण)

आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 27; MAHA UPADESH OF AADISHRI PART – 27
हे मनुष्य ! प्राणी स्वयं को "मैं " के मदहोश का मदिरा पिलाकर खुश करने वाला पाखंडी केवल मन है। प्राणी के शरीर का एक अदृश्य अंग है मन जो दिखाई नहीं देता परन्तु वही शरीर का सबसे शक्तिशाली हिस्सा है हे मनुष्य मन से बड़ा बहुरुपिया कोई  नहीं है क्योंकि यह पल - पल निराला स्वांग रचता है मन माया ममता में उलझा रहता है और प्राणी मन के बहकावे में जाता है   


इसलिए हे मनुष्य मन के बहकावे में मत क्योंकि मन भ्रम में डाल कर राह को भुला देने वाला है इस छलिया मन का तू दास बन बल्कि इस मन को अपना दास बना ले हे मनुष्य ! मैं तुमसे सच कहता हूँ कि मन के हाथों में मोह माया का जाल है जिसे वह मनुष्य के कामनाओं में डालता रहता है और अपने वश में किए रहता है ये मन शरीर से भी मोह करता है, अपनी खुशियों से भी मोह करता है और अपने सुखों से भी मोह करता है। खुशियों में खुशियों से भरे गीत गाता   है तो दुःख में दुःख भरे गीत गाएगा ?  अपने दुःख में दूसरों को शामिल करके उसे  ख़ुशी होती है किसी भी प्राणी को उसका मन जीवन के अन्त तक अपने जाल से निकलने नहीं देता रस्सी में बाँध कर उसे तरह - तरह के नाच नाचता रहता है उसे वह इतना फुर्सत भी नहीं देता है कि वह अपने अंतःकरण में झाँक कर अपने आत्मा को पहचाने और आत्मा के अन्दर जिस परमात्मा का प्रकाश है  उस परमात्मा का साक्षात्कार करे  

हे मनुष्य ! अपने परमात्मा के प्राप्ति की इच्छा प्रत्येक मनुष्य को होती है, सब प्राणियों के मन भी ये इच्छा है परन्तु परमात्मा का साक्षात्कार किसी को आज तक नहीं हुआ  हे मनुष्य ! उनको परमात्मा का साक्षात्कार कैसे होगा ? क्योंकि परमात्मा का दर्शन के लिए तन की नहीं मन की आवश्यकता होती है परन्तु सभी प्राणी अपना - अपना अन्तः चक्षु बन्द कर रखे हैं तो फिर ऐसे प्राणियों को परमात्मा का साक्षात्कार कैसे हो सकता है ? और मन की आँखें खुली हों तो ईश्वर आँखों के सामने भी हों तो मनुष्य को दिखाई नहीं देते

हे मनुष्य ! सभी प्राणी ईश्वर में आस्था रखता है वह भगवान  का भक्त है और दूसरी ओर वह सांसारिक लोगों के बीच रह कर जीवन निर्वाह के लिए काम भी करता है इसलिए उसे ईश्वर की भक्ति और सांसारिक लोगों के लिए सेवा धर्म दोनों ही निभाना पड़ता है तो वह भगवान के विरुद्ध कुछ कह सकता है और ही आपने मालिक के इच्छा के विरुद्ध कुछ कह सकता है। वह विवश है लेकिन सच्चाई यह है कि परमात्मा का दर्शन के लिए तन की नहीं मन की आवश्यकता होती है  गोल - गोल घूमने से अच्छा है कि प्राणी या तो ईश्वर के आधीन रहे या फिर सांसारिक लोगों के आधीन रहे प्राणी को दोनों में से किसी एक को चुनना ही पड़ेगा ईश्वर का दर्शन हेतु प्राणी के लिए यह आवश्यक है कि प्राणी अपने मन को काबू में करके अपने अन्तःकरण में झाँक कर अपने आत्मा को देखे तब उस आत्मा के अन्दर उसे परमात्मा का प्रकाश स्पष्ट दिखाई देगा। उसी को परमात्मा का साक्षात्कार कहते हैं।

मन ही वह सबसे बड़ी शक्ति है जो प्राणी को ईश्वर का दर्शन करवा देता है और मन ही अन्तःकरण में परमात्मा का प्रकाश को पहचनवाता है लेकिन  हे मनुष्य ! मन  बहुत बड़ा बहुरुपिया है  और  यह पल - पल निराला स्वांग रचता है मन माया ममता में उलझाता रहता है और प्राणी मन के बहकावे में जाता है  लेकिन  जब तुम अपने आपको  मन और विषयों के आधीन रहने दोगे तब तक वह तुम्हें नाच नाचता रहेगा यदि मन तुम्हारे वश में रहेगा तो वह तुमको ईश्वर का दर्शन करवा देगा, तुमको अपने अन्तःकरण में   परमात्मा का प्रकाश को पहचनवा देगा

हे मनुष्य ! प्राणी का शरीर एक रथ की भांति है उस रथ के जो घोड़े हैं उन्हें प्राणी की इन्द्रियाँ समझो जैसे आँख, नाक, कान, मुख, जीभ इत्यादि उन इन्द्रयों रूप घोड़े को जो चलाता है वह सारथी मन है और उस रथ में बैठा हुआ जो उस रथ का स्वामी है वही आत्मा है मनुष्य के इन्द्रियां अपने विषयों की ओर आकर्षित होती रहती है और उसका मन इन्द्रयों को उनके विषयों की ओर ही दौड़ाता रहता है ये तभी रुक सकता है जब तक ये आत्मा अपने मन को काबू में लाए जब तक मन काबू में नहीं आएगा तब तक वे इन्द्रियों को उसके विषयों की ओर ही दौड़ाता रहेगा विषय उनको बुलाती है इन्द्रियां उनकी तरफ भागती है और मन जीवात्मा के परवाह किए बिना रथ को उस ओर लिए जाता है परन्तु जब तुम स्वयं मन के आधीन रह कर मन को अपने आधीन कर लोगे तो वही मन एक अच्छे सारथि की तरह तुम्हारे शरीर रूपी रथ को सीधा ईश्वर के चरणों में ले जाएगा

मन है शरीर के रथ का सारथि, रथ को चाहे जिधर ले जाए;
इन्द्रियां हैं इस रथ के घोड़े, घोड़ों को विषयों की ओर भगाए 
आत्मा और शरीर के मध्य में, ये मन अपनी खेल दिखाए;
मन को वश में कर ले जो योगी , वो इसी रथ पे मोक्ष को जाए            
मन को वश में कर ले जो प्राणी  , वो इसी रथ पे परमानन्द  को जाए

इस लिए मैं तुमसे कहा था कि यदि  मन तुम्हारा स्वामी है और तुम उसके आधीन हो तो वो तुम्हें माया के बन्धन में जकड़ता रहेगा और जब तुम  मन पर काबू पा लोगे और उसके स्वामी हो जाओगे तो वह मन तुम्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा लेकिन यह मन बड़ा चंचल है, प्रमथन स्वभाव वाला है , बड़ा दृढ़ और बलवान है इसलिए मन को वश में करना वायु को रोकने की भाँति दुष्कर काम है (गीता 6:34)

हे मनुष्य ! मन को वश में करना मुश्किल अवश्य है लेकिन असंभव नहीं है   मन को वश में करने के लिए उस पर दो तलवार का प्रहार एक साथ करना पड़ता है। एक तलवार अभ्यास की है और दूसरा तलवार है वैराग्य की
अभ्यास का अर्थ है निरन्तर अभ्यास मन को एक काम पर लगा दो तो वह वहां से भागेगा   तुम्हारा काम है उसे पकड़ कर लाओ वह फिर भागेगा , उसे फिर पकड़ो ऐसा बार - बार करना पड़ेगा जैसे घोड़े का नवजात शिशु एक क्षण के लिए भी स्थिर नहीं रहता ; क्षण - क्षण में इधर - उधर फुदकता रहता है ठीक उसी प्रकार मन भी क्षण - क्षण में इधर - उधर फुदकता रहता है एक चंचल घोड़े की तरह मन भी बड़ा चंचल होता है और ऐसे चंचल मन को काबू करना उतना ही कठिन है जैसे किसी मुंहजोड़ घोड़े को काबू करना । ऐसे  घोड़े को नियंत्रण की रस्सी में बाँध कर काबू में करने के लिए घुड़सवार  जितना जोड़ लगता है घोडा उतना ही विरोध करता है । और बार - बार घोड़ा घुड़सवार को ही गिरा देता है । परन्तु यदि घुड़सवार दृढ़ संकल्प हो तो अन्त में वह उस घोड़े पर सवार हो जाता है । बस फिर वही घोड़ा सवार के इसारे पर चलता है । ठीक इसी प्रकार मन को भी नियंत्रण की रस्सी में बाँध कर बार - बार अपने रस्ते पर लाया जाता है तो अन्त में वह अपने स्वामी का मानना शुरू कर देता है । इसी को कहते हैं अभ्यास की तलवार चलाना । 

अब सवाल यह उठता है कि जब मन अभ्यास की तलवार चलाने से ही रस्ते पर आसकता है तो फिर दूसरी तलवार - वैराग्य की तलवार की क्या आवश्यकता है ?  वैराग्य की तलवार की आवश्यकता इसलिए है कि एक बार मन ठीक रस्ते पर आ जाने के बाद मन फिर से उल्टे रास्ते पर न चला जाय । क्योंकि उल्टे रास्ते पर इन्द्रियों के विषय उसे सदा ही आकर्षित करते रहेंगे । मिथ्या, भोग, विलास और काम कि तृष्णा उसे फिर अपनी ओर खींच सकती है। इसलिए मन को ये  समझ लेना जरुरी है कि वो सारे विषय - भोग मिथ्या है ।  यह सब योग माया के द्वारा उत्पन्न  होने  वाले भ्रम हैं ।  मन यदि सत्य को समझ लेगा तो फिर विषयों से मोह नहीं करेगा बल्कि उससे वैराग्य हो जाएगा । और यही वैराग्य की  तलवार का काम है कि वो विषयों के मोह को काट कर  मन को सन्यासी बना दे ।

हे मनुष्य ! विषयों का ज्ञान शरीर के इन्द्रियों के द्वारा ही होता है । इसलिए मैं यह नहीं कहता हूँ कि प्राणी इन्द्रयों का प्रयोग करना ही छोड़ दे । विषयों के मोह को त्यागने का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य इन्द्रयों का प्रयोग करना ही छोड़ दे।  ईश्वर ने इन्द्रियां अर्थात ये आँख, ये नाक, ये कान, ये त्वचा, ये मुख और ये जीभ इत्यादि प्रदान ही इसलिए किए हैं कि वो इनके द्वारा जीवन का आनंद स्वयं भी ले और ईश्वर की  बनाई हुई इस सृष्टि में भी चरों ओर आनन्द ही आनन्द बाँटता रहे । प्रकृति ने सृष्टि में रंग, रूप, रस, संगीत, स्पर्श और भाँति - भाँति के सुगंधों की रचना इसलिए किया है कि प्राणी इससे सुख पाए  इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि वो अपनी आँखों से सृष्टि का दर्शन करके सृष्टि में चारों ओर बिखरे हुए रंगों को देखे, फूलों को देखे, तारों को निहारे, चाँद  और चांदनी का आनंद ले, रंग - विरंगे पक्षियों को देखे, उनके अद्भुत और सुन्दर चहकार का रस ले, कोयल की कूक सुने, झरनों का संगीत सुने, जूही, बेला, चमेली, कस्तूरी और सावन की  पहली फुहार पर धरती से निकलने  वाली  सुगंध का आनन्द ले । जैसे एक माँ नन्हे बच्चे के गालों को छू कर, चुम कर खुश हो जाती है ठीक वैसे ही मन को वश में कर प्रकृति के भाँति - भाँति रूप - रंग का स्पर्श कर रचना करने वाले प्रभु का गुण गाए।  मन को वश में किए हुए  जो मनुष्य आत्मा को निरन्तर ईश्वर के स्वरुप में लगाता है तो वह ईश्वर में रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठा रूप शांति को प्राप्त होता है  (गीता 6:15)

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