आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 24
(आदिश्री अरुण)
समर्पण सभी आध्यात्मिक साधनाओं के पराकाष्ठा पर पहुँचने के महत्वपूर्ण साधन का नाम है और इसका वास्तविक उद्देश्य ज्ञान का क्रमिक
विकास है । यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बिना शर्त स्वयं को समर्पण किया जाता है
जिसमें सब प्रकार का अहंकार, अहंभाव, स्वार्थपरता,
दिखावटी
स्वार्थपरक कार्य, दम्भ तथा स्वार्थपरायण क्रिया कलाप का नाश हो
जाता है और वह अपने गुरु या फिर अपने ईश्वर में मिलकर एक हो जाता है और उनकी
सम्पूर्ण सृष्टि की सेवा करता है ।
जिस व्यक्ति के अंदर पूर्ण संतोष,
निर्लिप्तता
या वैराग्य, धैर्य वाली स्वाभाव, दया की दिव्यता,
ईश्वर
में विश्वास की शक्ति तथा गुरु और शिष्य
के बीच का सम्बन्ध अथवा ईश्वर या शिष्य के बीच का सम्बन्ध दिख पड़े तो उसको समर्पण
कहा जाता है । गुरु के प्रति अथवा ईश्वर के प्रति आपका समर्पण
कैसे हो इस सम्बन्ध में ईश्वर ने कहा कि समर्पण के लिए चार चीजों को देना अनिवार्य
है क्या तुम इन चार चीजों दे
सकते हो ? वह चार चीज है - " तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन,
मेरा
पूजन करने वाला हो और केवल मुझको प्रणाम कर । " (गीता 18 : 65 )
आपका मन हमेशा ही ज्ञान की प्राप्ति
में बाधा उत्पन्न करता है इसका वास्तविक कारण क्या है इस बात पर आपने कभी गौर किया है ? केवल समर्पण ही मन को योग्य स्थिति में लाने के लिए निर्मित
करती है और स्वार्थपरता, दिखावटी
स्वार्थपरक कार्य महत्वकांक्षा इत्यादि भावनाओं को दूर कर ह्रदय को शांत करता
है और मन को एकाग्र करताहै।
एक ही गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करने
वाले सारे शिष्य एक समान विद्या प्राप्त नहीं कर पाते । सारे शिष्य गुरु की बातें
सुनते हुए अवश्य दिखाई देते हैं, गुरु की पूजा करते हुए अवश्य दिखाई
देते हैं किन्तु एक सामान विद्या प्राप्त नहीं कर पाते । ज़रा सोचिये कि ऐसा क्यों
होता है ? वास्तविकता यह है कि विद्या प्राप्त न कर पाने वाले शिष्य समर्पण का
दिखावा तो करते हैं किन्तु समर्पण का वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते हैं। गुरु के
चरणों में फूल चढाने से, अथवा गुरु का आदेश सिर्फ मानाने मात्र
से क्या समर्पण सिद्ध होता है ? नहीं । समर्पण का वास्तविक अर्थ है जब गुरु के प्रति
मन में कोई संदेह नहीं रहे । गुरु के मुख से आदेश निकले उससे पूर्व शिष्य उस कार्य
को पूरा कर दे । गुरु के विचारों के साथ शिष्य के विचार एक हो जाय । शिष्य जब तक
अपने गुरु में ब्रह्मा, विष्णु, महेश समेत इनके
रूप न देखे तब तक उसका समर्पण सत्य नहीं । यदि सच पूछा जाय तो समर्पण किसी
कार्य का नाम नहीं बल्कि समर्पण तो ह्रदय की भावना और मन की स्थिति का नाम है ।
अर्थात आपके अज्ञान हैं और यह दोष केवल आपके मन का नहीं ?