आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 23
(आदिश्री अरुण)
हे अंधकार में पड़े लोगों ! तुममें धन इकठ्ठा करने की होर लगी है चाहे वह धन किसी भी तरीके से क्यों न आए। मैं मानता हूँ कि धन मनुष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। मैं यह भी मानता हूँ कि कुछ चीजों को छोड़ कर मानव जीवन के अधिकतर आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन बहुत ही आवश्यक है। किन्तु जब कोई व्यक्ति इच्छा को आवश्यकता समझने लगे
तो धन कितना भी क्यों न हो प्रयाप्त नहीं होता है ।
हे अंधकार में पड़े लोगों ! इच्छाओं का कोई अन्त
नहीं है । इसलिए मनुष्य कभी न समाप्त होने वाली इच्छाओं की पूर्ति हेतु धन संचय को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझ लेता है
। वह लोभी बन जाता है । वह भूल जाता है की उसके जीवन का मुख्य लक्ष्य ईश्वर के
समीप आना है । ऐसे लोभी व्यक्तियों को अपने मृत्यु के समय भी यही दुःख रहता है कि
उन्होंने क्या कुछ नहीं पाया और क्या शेष रह गया । ऐसे समय में वह एक क्षण के लिए भी ईश्वर का
स्मरण नहीं करते । उन्हें अपने जीवन के निरर्थकता और व्यर्थता का बोध नहीं
होता । इस बात को समझना पड़ेगा कि धन चाहे
कितना भी हो मूल आवश्यकताएँ तो केवल उतनी ही है - तन ढकने के लिए वस्त्र, पेट
भरने के लिए आहार, रहने के लिए मकान और रोग दे मुक्त रहने के लिए दवा। इन आवश्यकताओं के पूर्ण होने पश्चात जो भी है वह इच्छा है ।
धनि व्यक्ति के पास जो
भी अतिरिक्त धन हो उसे दान करना चाहिए । उनके उद्धार के लिए ऐसा करना जरुरी है। इससे मोह टूटता है। मोह उद्धार के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है। दान से दूसरा फायदा है - संसार में समानता आएगी, द्वेष नहीं होगा बल्कि सद्भावना बनी
रहेगी। किन्तु कुछ व्यक्ति इस तथ्य को समझ नहीं पाते
। उन्हें अपने एकत्रित किये हुए धन से इतना मोह हो जाता है कि उसका एक अंश भी किसी
और को नहीं देना चाहता है । शक्तिशाली बनाना अत्यन्त कठिन है किन्तु उससे भी कठिन
होता है हमेशा शक्तिशाली बने रहना। इसके लिए आवश्यक है कि आप ईश्वर से प्राप्त शक्तियों
का सम्मान करें । स्वयं पर नियंत्रण खो देने से आपका पतन हो जाएगा। जब
तक इस समस्त संसार में बुराई है तब तक अच्छाई भी रहेंगे । किन्तु अच्छाई और बुराई के
युद्ध में जीत हमेशा अच्छाई की ही होती है ।