MAHA UPADESH OF AADISHRI, PART - 19 / आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 19


आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 19

आदिश्री अरुण

MAHA UPADESH OF AADISHRI, PART - 19 / आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 19

समर्पण का नाम सभी ने सुना है । परन्तु समर्पण का वास्तविक अर्थ क्या है इस बात पर किसीने कभी गौर किया है ? आपका मन हमेशा ही ज्ञान की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करता है   आपको कभी  किसी अन्य शिष्य से ईर्ष्या हो जाता है , कभी दिए गए टीचिंग पर संदेह हो जाता है और कभी गुरुदेव के द्वारा दिया गया दण्ड मन को विचलित कर देता है । न जाने कैसे - कैसे विचार आपके मन को भटकाते हैं और मन के इसी अयोग्य स्थिति के कारण आप ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि मन की योग्य स्थिति केवल समर्पण से ही निर्मित होती है ।

समर्पण मनुष्य के अहंकार तथा अज्ञान का नाश करता है । ईर्ष्या, महत्वकांक्षा इत्यादि भावनाओं को समर्पण दूर कर ह्रदय को शांत करता है  और  मन को एकाग्र करता है  । वास्तव में ईश्वर की सृष्टि में आज के मनुष्यों ने न ज्ञान की मर्यादा को बरक़रार रखी  है और न ज्ञानियों की । विषय ब्रह्म - ज्ञान का हो  या  जीवन के ज्ञान का या गुरुकुल में प्राप्त होने वाले ज्ञान का, उसकी प्राप्ति के लिए सबसे अधिक महत्त्व है गुरु के प्रति आपका समर्पण । समर्पण  कैसे हो सकता है ? इस सम्बन्ध में ईश्वर ने कहा कि समर्पण के लिए चार चीजों को देना अनिवार्य है  क्या तुम  इन चार चीजों दे सकते हो ? वह चार चीज है - " तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और केवल मुझको ही प्रणाम कर । "  (गीता 18 : 65 )   

अब दूसरा महत्वपूर्ण और निर्णायक प्रश्न यह है कि क्या संसार में केवल सुख का होना संभव नहीं है ? जबाब अति सरल  है - प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य तो केवल सुख की प्राप्ति ही तो है - पमानन्द की प्राप्ति । किन्तु आप सुख नहीं बल्कि सुख को प्रदान करने वाली वस्तुओं को एकत्रित करना जीवन का उद्देश्य मान लेते हो। यह समस्त संसार माया है, सब कुछ नाशवान हैं, जिन वस्तुओं को आप सुख का स्रोत समझ कर एकत्र करना चाहते हो वह सब नहीं रहेंगे । जो इस सत्य को जानते हुए भी इस रोग का नाश नहीं करते वो सदैव इन वस्तुओं को खोने के भय में जीते हैं और जो व्यक्ति इस सत्य को जानते ही नहीं वह अहंकार में जीते हैं। जहाँ अहंकार और भय उपस्थित हो वहाँ सुख किस प्रकार रह सकता है ? किसी को यह दुःख है कि उसके पास कुछ भी नहीं है, और जिसके पास सब कुछ है तो उसे यह दुःख है कि पाने को कुछ शेष नहीं    सुख को आप स्वयं के दृष्टिकोण से परिभाषित कर देते हैं जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है । इसलिए आवश्यकता है अनाशक्त रहने की । किन्तु क्या हे मनुष्य ! आसक्ति स्वाभाविक  है ?  नहीं,  और दुःख का मूल कारण ही तो  आशक्ति है । आशक्ति आपके मन की शांति को छीन लेती है, उसे भांग कर देती है, आपके बुद्धि को स्थिर नहीं रहने देती है, उसे चंचल बना देती है, आशक्ति से प्रमाद की उत्पत्ति होती है, प्रमाद से मद की उत्पत्ति होती है और मद अहंकार का स्रोत है । अहंकार पूर्णतया  अशुभता में परिवर्तित हो जाता है अर्थात अहंकार अशुभता की जननी है । इसलिए आसक्ति अनावश्यक है ।

अब प्रश्न यह उठता है  कि  आसक्ति को अनाशक्ति में कैसे परिवर्तित किया जा सकता है ? अथवा आशक्ति से आप कैसे मुक्त हो सकते हैं ? आशक्ति से मुक्त होना ही अनाशक्ति है । आशक्तिहीन होने के लिए अपने और पराये का भेद मिटाना अनिवार्य है और यह तभी संभव होगा जब आप सुख की खोज बाहर नहीं अपने भीतर करें । जब आप वास्तविकता को पहचान लें तो उसको स्वीकार कर लें और अपने सुख को सांसारिक तत्वों से परिभाषित नहीं करें ।  जब तक आप ऐसा करते रहेंगे तब तक आप बंधते जाएँगे । जब आप स्वयं अपने भीतर झांकना आरम्भ करेंगे तो आपके मुक्ति का मार्ग स्वतः प्रशस्त होता जाएगा ।
आपने ने तो दुःख का कारण जान लिया किन्तु अब भय का कारण भी जानिए । भय का स्रोत है इच्छा । यदि पाने की इच्छा होगी तो उसे खोने का भय भी होगा । यदि जीवित रहने की इच्छा है तो मृत्यु का भय भी अवश्य होगा । किन्तु  केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि देवता और गन्धर्व सभी इस भय से ग्रसित हैं । किन्तु इच्छाओं से मुक्त कोई भी नहीं । इच्छा, ईर्ष्या, द्वेष, दूसरों की निंदा और संयन्त्र  जैसे पाप भय से ही उत्पन्न होते हैं और प्रत्येक पाप का प्रायश्चित केवल दुःख और कष्ट उठाने से ही संभव होता है  । इसलिए भय भी अंत में दुःख का कारण बन जाता है।   

Post a Comment

और नया पुराने