MAHA UPADESH OF AADISHRI, PART – 7 (NEW); आदिश्री के महा उपदेश, भाग - 7(NEW)


Maha Upadesh of Aadishri, Part – 7 (New); आदिश्री के महा उपदेशभाग - 7(New)

MAHA UPADESH OF AADISHRI, PART – 7 (NEW); आदिश्री के महा उपदेश, भाग - 7(NEW)


हे मनुष्य ! यह संसार दुखों का काँटों भरी झाड़ी है और सबको इस झाड़ी में
  उलझकर दुःख पाना है  । यदि तुम चाहते हो कि काँटों भरी पेड़ पर बैठ कर सदा मुस्कुराते रहो जैसे गुलाब के फूल मुस्कुराते हैं तो इस परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुनो  


मन पर काबू कर लो तो तेरे लिए मुक्ति के द्वार खुल जाएँगे  । तो प्रश्न यह उठता है कि मन को वश में करने का कोई सरल साधन है मैं तो आप से यह कहता हूँ कि साधन तो अवश्य हैसरल भी परन्तु बड़ा दुष्कर भी है । तुम ज्यादा पड़ेशान न हो क्योंकि यदि तुम निश्चय मन वाले  हो तो ये काम बहुत ही सरल है । और यदि  तुम निश्चय मन वाले  नहीं हो तो ढृढ़ निश्चय नहीं कर सकोगे और अगर   ढृढ़ निश्चय नहीं कर सकोगे तो जन्म जन्मांतर तक भटकते रहोगे । अब प्रश्न यह उठता है कि यह ढृढ़ निश्चय किस प्रकार हो सकता  है जबाब बड़ा ही सरल है ।  गीता 6 : 35  में ईश्वर ने कहा कि अभ्यास से ।  ईश्वर में विश्वास से ही  यह संभव हो सकता है दूसरा सत्य में विश्वास से ही  यह संभव हो सकता है और अपने धर्म में विश्वास से ही  यह संभव हो सकता है । जब अपने धर्म को  अर्थात जब अपने कर्तव्य को जान लोगे  तो ढृढ़ निश्चय होकर अपने धर्म पथ पर, अपने कर्तव्य पथ पर आप  आगे बढ़ोगे । फिर आप सुख - दुःखहानि - लाभजय - पराजय को एक जैसा ही समझ कर अपने पथ से डगमगाओगे नहीं ।

हे मनुष्य ! तुम सुख - दुःख लाभ - हानि  - लाभजय - पराजय को एक सामान समझ कर केवल इस लिए कर्म करो क्योंकि इस समय तेरा कर्म करना कर्तव्य है  । यदि तुम अपनी मानसिक दृष्टी इसे अपना धर्म समझ कर कर्म करोगे तो तुम्हें उसका पाप नहीं लगेगा क्योंकि यदि कोई भी काम निष्काम योग रीति से किया जाय तो न तो उसका पाप लगता है और न ही उसका पुण्य मिलता है । धरती पर कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिस कर्म में तो छल झूठ कपट बेईमानी नहीं  करने पड़ते हैं तो उसका पाप और  पुण्य किस प्रकार नहीं मिलेगा हे मनुष्य ! यह है निष्काम कर्म योग ।

अब  प्रश्न यह उठता है कि निष्काम कर्म योग क्या है जो मनुष्य को पाप और पुण्य से मुक्त कर देता है ?  यह  निष्काम कर्म योग एक गूढ़ विद्या है और जो इसके रहस्य को समझ लेता है यह इस संसार में रहते  हुए भीसंसार के सारे कर्म करता हुआ  भी कर्म फल के बंधन से मुक्त रहता है  । ये तो बड़ी अनोखी बात है लेकिन यह बात हजम नहीं हो रहा है । यह बात हजम नहीं होने का कारण यह है कि तुम्हारे बुद्धि पर आशक्ति का परदा पड़ा हुआ है। जो निष्काम कर्म योग की चर्चा कर रहा हूँ उसकी बुनियाद ही निराशक्ति के आधार पर   रखी गई है । हे मनुष्य ! यदि तुम इस निराशक्ति योग को समझ लोगे तो तुम्हारे जीवन में पूर्ण शांति आजायेगी ।

अब प्रश्न यह उठता है कि इस योग की  साधना कैसे करते हैं और इस योग के नियम क्या हैं इसकी साधने के लिए कोई हजारों वर्ष की तपस्या की आवश्यकता नहीं है । इसकी साधना तो एक ही क्षण में हो जाती है । जिस क्षण में मनुष्य अपने मन की रवैया बदल लेता है वही क्षण  । कोई भी मनुष्य एक ही फल  में आसक्ति को किस प्रकार छोड़ सकता है क्योंकि कोई प्राणी यदि कोई कर्म करता है तो उसके मन में कर्म फल की आशा तो रहती ही है । मनुष्य फल पाने की इच्छा से ही कर्म करता है । हे मनुष्य ! बस यहीं से निष्काम कर्म योग की साधना शुरू होती है । अर्थात तुमने कहा कि मनुष्य फल पाने की इच्छा से ही कर्म करता है परन्तु निष्काम कर्म योग ये सिखाता है कि फल पाने की इच्छा से नहीं बल्कि अपने कर्तव्य पाने की इच्छा से अपने धर्म का पालन करने की इच्छा से कर्म करो । फल पर भरोसा रख कर कर्म मत करो क्योंकि  फल पाना ही तुम्हारे हाथ में नहीं । तुम्हारे अधिकार में केवल कर्म करना ही है । हे मनुष्य ! तुम कर्म कर सकते होतुम कर्म करने का संकल्प कर सकते हो परन्तु इसका फल पाना तुम्हारे हाथों में नहीं है । यदि तुम यह कहते हो हो कि खाने का मन बनाया और खाना का निबला मुंह में रखूंगा तभी तो खाना खा पाएंगे ?   हे मनुष्य ! मैं तुमसे सच कहता हूँ कि यदि वह खाना तुम्हारे प्रारब्ध में नहीं है तो तुम उस खाना का एक दाना भी नहीं खा पाओगे। हे मनुष्य ! केवल कर्म का संकल्प ही प्राणी के अधिकार में हैउसका फल प्राणी के अधिकार में नहीं है । यदि ईश्वर प्राणी  को फल उसके प्रारब्ध के अनुसार ही देना है तो प्राणी को कर्म करने कि आवश्यकता ही क्या है ?



इसको जानने से पहले यह तो जान लो कि प्रारब्ध क्या है और प्रारब्ध कैसे बनता है ईश्वर किसी का प्रारब्ध नहीं बनातान ईश्वर किसी प्राणी के कर्म और कर्मफल में दखल देते हैं । इसलिए प्राणी के प्रारब्ध बनाने में ईश्वर का कोई हाथ नहीं होता।

प्रारब्ध प्राणी स्वयं बनाता है । प्राणी जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका प्रारब्ध बनता है । प्रारब्ध प्राणी के अच्छे - बुरे फल का हिसाब है । अपने पुण्य फल के कारण सुख और पाप फल के कारण दुःख प्राणी को इसी जन्म में या फिर अगले जन्म में भोगना ही पड़ता है वह टल नहीं सकता है  । इसलिए अकर्मण्य हुए बिना निरंतर अपने धर्म के अनुसार अपना कर्म करते चलोऔर में यह पक्का विश्वास रखो कि जिस नियत के साथ तुम कर्म करोगे उसी नियत के अनुसार तुम्हें फल अवश्य मिलेगा ।

कर्म का यह अटल विधान है । इसमें कभी भी किसी के साथ अन्याय नहीं हो सकता । हे मनुष्य ! प्राणी का कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता । मनुष्य को अपने हर कर्म का फल अवश्य मिलता है । कोई भी मनुष्य अकर्मण्य नहीं हो सकता । कर्म तो उसे हर स्थिति  में करना ही पड़ेगा । हे मनुष्य ! सन्यासी को भी कर्म तो करना ही पड़ता हैअगर नहीं  चाहेंगे तो भी उनको भी कर्म करना ही पडेगा  । खाना - पीनाउठाना - बैठनातपस्या करनासाधना करना  - ये सब भी तो कर्म ही हैं। कर्म से कोई कैसे मुक्त हो सकता हैं अब प्रश्न यह उठता है कि जब मनुष्य कर्म  से मुक्त हो ही नहीं सकता है तो मनुष्य कर्म कैसे करे ताकि उसे पाप और पुण्य से मुक्ति मिलेहे मनुष्य ! इसका तरिका ये है कि मनुष्य फल की  इच्छा त्यागकर कर्म को अपना धर्म समझ कर करे । फल उसे अवश्य मिलेगा परन्तु वो फल को विधान की  इच्छा समझ कर स्वीकार करे । ज्ञानी पुरुष इसी योग को अपनाकर कर्मयोगी बन जाते हैं ।

अब मैं आपको कर्म का वह तरिका भी बताऊंगा कि कर्म करो और कर्म के बंधन  से भी मुक्त हो जाय । इसका बड़ा ही सहज तरिका है । आप कर्मफल में आसक्ति मत रखो । कुछ लोगों का यह मानना है कि कर्म फल की इच्छा तो हर कोई रखता हैवह कर्मफल में आसक्ति किस प्रकार न रखे लेकिन उनसे मैं यह पूछना चाहता हूँ कि क्या कर्मफल की इच्छा रखने से उनको फल की प्राप्ति होती है नहीं न ।  क्योंकि फल तो प्रारब्ध के हाथ में है  । जो भी मनुष्य फल प्राप्त करने की इच्छा करता  है उसका मन फल के बारे में सोच कर अपने कर्तव्य - कर्म से विचलित हो जाता है और उसे वह फल प्राप्त नहीं होता जिसको प्राप्त करने की उसने इच्छा की थी    

हे मनुष्य ! प्राणी केवल कर्म कर सकता है फल कदापि मनुष्य के अधीन नहीं है । अब प्रश्न यह उठता हैं कि यदि फल मनुष्य के अधीन नहीं है तो मनुष्य कर्म ही क्यों करे क्योंकि यह मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने कर्तव्य का पालन करे । लेकिन प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य यदि फल को  प्राप्त करने की इच्छा छोड़ दे तो मनुष्य के मन में कर्म करने की इच्छा उत्पन्न कैसे होगी ?  यदि फल को  प्राप्त करने की इच्छा ही न हो तो मनुष्य कर्म ही क्यों करेगा ?  हे मनुष्य ! जो साधारण मनुष्य फल प्राप्ति की इच्छा से ही कर्म करने के लिए उत्सुक होते होते हैं वे सुख - दुःख आदि के चक्र में फस जाते हैं । उनके मन की शांति नष्ट हो जाती है हर पलहर समय फल प्राप्त करने के विचार से  उनकी निद्रा उड़ जाती है। हे मनुष्य ! इस दिव्य और अलौकिक ज्ञान के स्वरुप को ज्ञानी मनुष्य जानते हैं और उपरोक्त बताए ज्ञान  योग का आचरण करके प्राणी मोक्ष प्राप्त करते हैं । हे मनुष्य ! यदि तुम  उपरोक्त इन बातों को स्वीकार कर लिए हो तो  तुम  अपने पापों के बोझ को उतार दिए और इस पल तुम इस क्षण केवल एक प्रकाश पुञ्ज हो  जिसे मैंने अपने दिव्य ज्योति से तुम्हें प्रकशित कर दिया हूँ  । तुम्हारी इस अवस्था को देख कर मैं तुमको केवल यह कहना चाहता हूँ कि " जो तुम कर्म करते होजो खाते हो,   जो हवन करते होजो दान देते  हो और जो तप करते होवह सब ईश्वर को  अर्पण कर दो ।  ऐसा करने से तुम शुभ - अशुभ फल रूप कर्म बंधन से मुक्त हो हो जाओगे  और   कर्म बंधन से मुक्त हो कर  ईश्वर को ही प्राप्त हो जाओगे    


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