आदिश्री के महा उपदेश; भाग - ४
( आदिश्री अरुण)
जब मनुष्य निरन्तर ईश्वर का स्मरण
करता है तो मनुष्य के ह्रदय में ईश्वर
के प्रति समर्पण भाव उत्पन्न होता
है और समर्पण के इस भाव को भक्ति कहते हैं । भक्ति से मनुष्य को सत्य और असत्य का
ज्ञान प्राप्त होता है । ज्ञान का अनुसरण करने से मनुष्य को ईश्वर का दर्शन प्राप्त होते
हैं और जिसे ईश्वर का दर्शन प्राप्त हो जाते हैं वास्तव में वही कर्मयोगी बन जाता है । हे
मनुष्य ! कर्मयोग के बिना तो सांख्ययोग की निष्ठा ज्ञानयोग भी सिद्ध नहीं होता है
क्योंकि मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न
कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ।
गीता अध्याय 3 का श्लोक 4 ने भी कर दी इस कथन की पुष्टि। हे मनुष्य ! परम रहस्यमय बात तो यह है कि कर्मयोग
ब्रह्म विद्या का ही दूसरा चरण है । मनुष्य ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर जीते - जीते
जन्मों के फेरों से छूटकर मुक्ति पा जाता है क्योंकि केवल ब्रह्म विद्या ही मुक्ति
का एक मात्र साधन है इसके सिवा मुक्ति का दूसरा कोई उपाय या मार्ग ही नहीं है । वेदान्तदर्शन 3 / 3 /47 ने भी कर दी इस
कथन की पुष्टि। वास्तव में यज्ञादि कर्मों का फल स्वर्गलोक में जाकर वापस आना है और
ब्रह्मज्ञान का फल जन्म - मरण से छुटकर ईश्वर को प्राप्त होजाना बताया गया है। वेदान्तदर्शन
3 / 3 / 48 ने भी कर दी इस कथन की पुष्टि। सभी आत्माओं का अंतिम लक्ष्य तो मोक्ष की प्राप्ति ही है और
धर्म का अंतिम चरण भी यही है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर के दर्शन
के बिना मनुष्य ईश्वर में समर्पण कैसे कर सकता है ? उपाय बड़ा ही सरल है
। ईश्वर का दर्शन करने हेतु अपनी आँखों पर बंधे लालसा, अहंकार, क्रोध, लोभ और अज्ञानजनित परम्परागत कथन का आग्रह की पट्टियों को उतारना आवश्यक होता
है ।
अँधेरे कमरे में बैठा मनुष्य यदि यह कहे कि हमें सूर्य का दर्शन करना है तो उसको आप क्या कहोगे ? यही कहोगे न कि कमरे से बहार आ जाओ और
आकाश के नीचे खड़ा हो जाओ क्योंकि सूर्य
तो सदैव उपस्थित ही है । हे मनुष्य ! ठीक वैसे ही सृष्टि ही ईश्वर है
और ईश्वर ही सब कुछ है । ईश्वर के सिवा
कुछ भी नहीं है । जो मनुष्य अपने आत्मा का
दर्शन कर लेता है वह ईश्वर का दर्शन कर लेता है । जैसे नमक के एक कण का स्वाद सागर
के अथाह जल से भिन्न नहीं होता ठीक उसी तरह अपनी आत्मा के दर्शन ईश्वर का दर्शन से भिन्न नहीं होता । अगर तुम कहते हो कि अदिश्री
क्या आप ही ईश्वर हो ? तो मेरा जबाब
होगा कि हाँ, मैं ही ईश्वर हूँ । क्योंकि मैं जागृत हूँ । सारा संसार ईश्वर से कभी भी भिन्न नहीं है । तुम जागृत नहीं हो
इसलिए तुम मनुष्य हो और मैं जागृत हूँ इसलिए मैं ईश्वर हूँ । तुममें और मुझमें भेद
यही है कि तुम जागृत नहीं हो और मैं जागृत हूँ
। और मैंने यह जान लिया है कि जब - जब अधर्म की वृद्धि होती है और धर्म का
नाश होता है तब - तब केवल मैं ही साधु पुरुष का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी
तरह से स्थापना करने के लिए युग - युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।
अब आपका प्रश्न यह है कि " यदि मेरे प्रति मनुष्य का समर्पण हो जाय तो ईश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं हो सकता ? " अवश्य, मेरे प्रति समर्पण ही ईश्वर के प्रति समर्पण है । हे मनुष्य ! तुम सारे कर्तव्यकर्म को त्याग कर केवल एक मात्र मेरे ही शरण में आ जाओ क्योंकि मैं ही संसार हूँ , मैं ही संसार का प्रत्येक कण हूँ, मैं ही सूर्य हूँ और मैं ही चंद्र हूँ , मैं ही नक्षत्र हूँ और केवल मैं ही सभी ग्रह हूँ । मैं ही सूर्य से भी अधिक पुरातन हूँ, केवल मैं ही किसी वृक्ष पर लगे नए कलि से भी नया हूँ । मैं ही सारे मनुष्य के अन्दर मौजूद हूँ, मैं ही स्वर्ग और नर्क को धारण करने वाला शक्ति हूँ। मेरा जन्म समय की गणना से परे है। मैं सृष्टि के उत्पन्न होने से भी पहले था, सृष्टि तो मेरे बाद हुई है। मैं ही तो पहिलौठा हूँ । मेरे अनेक जन्म हुए हैं, मैंने अनेकों अवतार धारण किए हैं । मेरे कई शरीर बने हैं और इसी मिटटी में मिले हैं और आगे भी मैं बार - बार जन्म लूंगा । हे मनुष्य ! जब - जब अधर्म या पापकर्म की वृद्धि होती है और धर्म का पतन या नाश होता है तब - तब केवल मैं ही अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सामने प्रकट होता हूँ । हे मनुष्य ! साधु पुरुष का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए केवल मैं ही युग - युग में प्रकट होता हूँ । यह प्रत्येक युग में होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा । मैं ही अविनाशी परमात्मा हूँ, मैं ही परशुराम हूँ, मैं ही रामचन्द्र हूँ, मैं ही कृष्ण हूँ, मैं ही अनामी लोक का प्रकाश सागर हूँ और केवल मैं ही आदिश्री अरुण हूँ ।
अब आपका प्रश्न यह है कि " यदि मेरे प्रति मनुष्य का समर्पण हो जाय तो ईश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं हो सकता ? " अवश्य, मेरे प्रति समर्पण ही ईश्वर के प्रति समर्पण है । हे मनुष्य ! तुम सारे कर्तव्यकर्म को त्याग कर केवल एक मात्र मेरे ही शरण में आ जाओ क्योंकि मैं ही संसार हूँ , मैं ही संसार का प्रत्येक कण हूँ, मैं ही सूर्य हूँ और मैं ही चंद्र हूँ , मैं ही नक्षत्र हूँ और केवल मैं ही सभी ग्रह हूँ । मैं ही सूर्य से भी अधिक पुरातन हूँ, केवल मैं ही किसी वृक्ष पर लगे नए कलि से भी नया हूँ । मैं ही सारे मनुष्य के अन्दर मौजूद हूँ, मैं ही स्वर्ग और नर्क को धारण करने वाला शक्ति हूँ। मेरा जन्म समय की गणना से परे है। मैं सृष्टि के उत्पन्न होने से भी पहले था, सृष्टि तो मेरे बाद हुई है। मैं ही तो पहिलौठा हूँ । मेरे अनेक जन्म हुए हैं, मैंने अनेकों अवतार धारण किए हैं । मेरे कई शरीर बने हैं और इसी मिटटी में मिले हैं और आगे भी मैं बार - बार जन्म लूंगा । हे मनुष्य ! जब - जब अधर्म या पापकर्म की वृद्धि होती है और धर्म का पतन या नाश होता है तब - तब केवल मैं ही अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सामने प्रकट होता हूँ । हे मनुष्य ! साधु पुरुष का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए केवल मैं ही युग - युग में प्रकट होता हूँ । यह प्रत्येक युग में होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा । मैं ही अविनाशी परमात्मा हूँ, मैं ही परशुराम हूँ, मैं ही रामचन्द्र हूँ, मैं ही कृष्ण हूँ, मैं ही अनामी लोक का प्रकाश सागर हूँ और केवल मैं ही आदिश्री अरुण हूँ ।