Maha Upadesh of aadishri, Part – 5; आदिश्री अरुण के महा उपदेश; भाग - 5

आदिश्री अरुण के  महा उपदेश; भाग - 5

(आदिश्री अरुण)

Maha Upadesh of aadishri, Part – 5; आदिश्री अरुण के  महा उपदेश; भाग - 3


हे मनुष्य ! क्या तुम यह नहीं जानते हो कि कामना को त्याग देना चाहिए ? क्या तुम यह नहीं जानते हो कि कामना पूर्ण न होने पर या कामना में बिघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ? क्रोध से अत्यंरत मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है  । मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता हैस्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह मनुष्य अपबनी स्थिति से गिर जाता है ? गीता अध्याय  2 का श्लोक 62 - 63 ने भी कर दिया इस कथन की पुष्टि । हे मनुष्य ! क्या तुम यह नहीं जानते हो कि कामना और क्रोध नरक में ले जाने वाला बुलेट ट्रेन है ? फिर भी तुम कामना और क्रोध वाली  बुलेट ट्रेन में बैठ कर यात्रा करते हो ? गीता अध्याय  16 का श्लोक 21 ने भी कर दिया इस कथन की पुष्टि । फिर भी न जाने क्यों तुम्हारे  सारे सम्बन्धों का आधार है आशा या उम्मीद या फिर कामना । पति कैसा हो ? जो मेरा जीवन सुख और सुबिधा से भर दे । पत्नी  कैसी हो जो सदैव मेरे प्रति समर्पित हो । सन्तान कैसा हो ? जो मेरी सेवा करे, मेरा कहना माने । मनुष्य केवल उसी व्यक्ति को ही प्रेम कर पाता है  जो उसकी आशा या उम्मीद या फिर कामना को पूर्ण कर पता है  ।आधार है आशा या उम्मीद या फिर कामना का नियत ही है पूर्ण नहीं होना । क्योंकि आशा या उम्मीद या फिर कामना मनुष्य के मस्तिष्क में जन्म लेती है । यही कारण है कि कोई अन्य व्यक्ति उसके मस्तिष्क में जन्म लेने वाली  आशा या उम्मीद या फिर कामना को जान ही नहीं पाता । आशा या उम्मीद या फिर कामना को पूर्ण करने कि इच्छा रहने के बाबजूद भी मनुष्य किसी की  आशा या उम्मीद या फिर कामना को पूर्ण नहीं कर पाता । पर वहाँ से जन्म लेता है संघर्ष । सारे सम्बन्ध संघर्ष में परिवर्तित हो जाते हैं । इसलिए यह परम आवश्यक है की मनुष्य आशा या उम्मीद या फिर कामना को सम्बन्ध का आधार न बनाए और स्वीकार करे केवल सम्बन्ध का आधार प्यार । ऐसा करने से मनुष्य का जीवन सुख और शान्ति से भर जाएगा ।


समय के आरम्भ से ही मनुष्य का एक प्रश्न मनुष्य को को हमेशा से ही पीड़ा देता आया है। मनुष्य अपने सम्बन्धों में अधिकतम सुख और कम से कम दुःख किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? क्या आपके सारे सम्बन्धों ने आपको सम्पूर्ण संतोष दिया है ?


आपका जीवन सम्बन्धों पर आधारित है। आपकी सुरक्षा  सम्बन्धों पर आधारित है। यही कारण है कि आपके सारे सुखों का  आधार भी सम्बन्ध  है। किन्तु आपको सम्बन्धों में ही अधिकतर दुःख क्यों प्राप्त होते हैं ? सम्बन्धों से ही हमेशा संघर्ष उत्पन्न क्यों हो जाते हैं ? क्या यह बात आपने सोचा है जब से कोई व्यक्ति दूसरे के कार्य या फिर उनके विचारों को स्वीकार नहीं करता और उसमें परिवर्तन करने का प्रयत्न करता है तो संघर्ष जन्म लेता है । अर्थात जितना  अधिक अस्वीकार  उतना ही अधिक संघर्ष । तथा   जितना  ही अधिक स्वीकार  उतना ही अधिक सुख  । क्या इस वास्तविकता से आप कभी मुँह मोड़ सकते हैं ? यदि कोई मनुष्य स्वयं अपने विचारों पर अंकुश लगाए, अपने विचारों पर गौर फरमाए और किसी दूसरे व्यक्ति में परिवर्तन करने का प्रयत्न न कर स्वयं अपने भीतर परिवर्तन करने का प्रयास करे तो क्या  सम्बन्धों में संतोष प्राप्त करना, सम्बन्धों में मिठास प्राप्त करना कठिन है ? अर्थात क्या स्वीकार ही सम्बन्ध का वास्तविक अर्थ नहीं है ?

जब किसी व्यक्ति को किसी घटना में अन्याय का अनुभव होता है, तो वो घटना उसके अंतःकरण को झकझोड़ देती है। समस्त जगत उसे अपना शत्रु प्रतीत होता है । अन्याय लगाने वाली घटना जीतनी अधिक बड़ी होती है मनुष्य का ह्रदय भी उतना ही अधिक विरोध करता है । उस घटना के उत्तर में वह न्याय   मांगता है। जब किसी व्यक्ति को किसी घटना में अन्याय का अनुभव होता है, तो वो घटना उसके अंतःकरण को झकझोड़ देती है। समस्त जगत उसे अपना शत्रु प्रतीत होता है । अन्याय लगाने वाली घटना जीतनी अधिक बड़ी होती है मनुष्य का ह्रदय भी उतना ही अधिक विरोध करता है । उस घटना के उत्तर में वह न्याय   मांगता है।  यह उचित भी है क्योंकि समाज में किसी भी प्रकार का अन्याय व्यक्ति कि आस्था और विश्वास का नाश करता है ।      
  

समय के आरम्भ से ही मनुष्य का एक प्रश्न मनुष्य को को हमेशा से ही पीड़ा देता आया है। मनुष्य अपने सम्बन्धों में अधिकतम सुख और कम से कम दुःख किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? क्या आपके सारे सम्बन्धों ने आपको सम्पूर्ण संतोष दिया है ?


आपका जीवन सम्बन्धों पर आधारित है। आपकी सुरक्षा  सम्बन्धों पर आधारित है। यही कारण है कि आपके सारे सुखों का  आधार भी सम्बन्ध  है। किन्तु आपको सम्बन्धों में ही अधिकतर दुःख क्यों प्राप्त होते हैं ? सम्बन्धों से ही हमेशा संघर्ष उत्पन्न क्यों हो जाते हैं ? क्या यह बात आपने सोचा है ?



अब प्रश्न यह उठता है कि न्याय क्या है ? न्याय का अर्थ क्या है ? अन्याय करने वाले को अपने कार्यों पर पश्चाताप हो और अन्याय  को  अपने मन में फिर से यह विश्वास जगे समाज के प्रति । किन्तु जिसके ह्रदय में धर्म नहीं होता यह न्याय को छोड़ कर बैर और प्रतशोध को अपनाता है । अहिंसा बदले हिन्सा कि भावना को लेकर चलता है  । स्वयं भोगते हुए पीड़ा से कहीं अत्यधिक पीड़ा देने का प्रयत्न करता है । और इस मार्ग पर चल कर अन्याय को भुगतने वाला स्वयं अत्यधिक अन्याय करने लगता है  । यानि कि वह शीघ्र ही अपराधी बन जाता है  । अर्थात अन्याय  और प्रतिशोध  के बीच बहुत काम अन्तर होता है  । और इसी अन्तर का नाम है संघर्ष । जब दो व्यक्ति एक दूसरे के निकट आते हैं तो मर्यादाएँ निर्मित करने का प्रयत्न अवश्य करते हैं  । हम यदि सारे सम्बन्धो पर विचार करें तो देखेंगे कि इन सारे सम्बन्धों का आधार यही सीमाएँ  हैं जो आप दूसरों के लिए निर्मित करते हैं और यदि अंजाने में भी कोई अन्य व्यक्ति इन सीमाओं को तोड़ता है तो उसी क्षण आपका ह्रदय क्रोध से भर जाता है। इन सीमाओं का वास्तविक रूप  क्या है ? क्या इस बात पर आपने  कभी विचार किया है ? सीमाओं के द्वारा आप दूसरे व्यक्ति को निर्णय करने कि अनुमति नहीं देते हैं । अपना निर्णय उसी के ऊपर थोप देते हैं । अर्थात किसी के स्वतन्त्रता का हनन करते हैं । जब किसी के स्वतन्त्रता का हनन किया जाता है तो उसका ह्रदय दुःख से भर जाता है । और जब वो सीमाओं को तोड़ता है  तो आपका ह्रदय क्रोध से भर जाता है । क्या ऐसा नहीं होता है ? पर यदि एक दूसरे के स्वतन्त्रता का सम्मान किया जाय तो किसी मर्यादाओं या सीमाओं कि आवश्यकता ही नहीं होगी । अर्थात जिस प्रकार स्वीकार किसी सम्बन्ध का देह है क्या वैसे ही स्वतन्त्रता किसी देह का आत्मा  नहीं ?   

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