आदिश्री अरुण के महा उपदेश; भाग - 3
(आदिश्री अरुण)
हे मनुष्य ! तुम अपने आप को जांचो, तुम अपने आप को परखो कि तुमने अहंकार की मुट्ठी बंधी है या समर्पण की अंजलि बनाई है ? पांच महाभूतों से इस शरीर का निर्माण हुआ है ।
अर्थात ज्ञानवान, डाक्टर, इंजीनीयर, वैज्ञानिक, प्रधानमंत्री,
राष्ट्रपति और अरबपति अथवा खरबपति - पृथ्वी,
जल,
अग्नि, वायु और आकाश से अधिक कुछ भी नहीं हैं। सर्वज्ञानी इसी पांच महाभूत का जोड़ है और
अधर्मी भी । तो फिर मोह किसका कर रहे हो - पांच महाभूत का ? न तो मनुष्यों का परिचय उसके देह से है और न उसके संबंधों का आधार ही उसके देह से है । मनुष्य का स्वभाव, मनुष्य का
व्यवहार और मनुष्य का कार्य ही उसका परिचय है
। मनुष्य का स्वभाव, व्यवहार और कार्य
कैसे बनते हैं इसको समझो । मनुष्य जीवन तो केवल जड़ प्रकृति और चेतन प्रकृति का
मेल है (Combination।of Lower
Energy and Higher Energy) भिन्न - भिन्न
मनुष्य का स्वभाव, व्यवहार और कार्य भिन्न -
भिन्न प्रकार का होता है ; इसका कारण है
प्रकृति के तीन गुण - सत्व, रज और तम । तम
गुण का अर्थ होता है अंधकार । बिना अच्छे
- बुरे का विचार किए जीवन व्यतीत करने को तामसिक व्यवहार कहा जाता है । जैसे पशु - पक्षी केवल अपनी शारीरिक इच्छाओं को
पूर्ण करने के लिए जीते हैं । सत्व गुण का अर्थ होता है ज्ञान का प्रकाश । जब व्यक्ति
प्रत्येक परिस्थिति में धर्म का, सत्य का और
परम्पराओं का विचार करके व्यवहार करता है तब उसे सात्विक जीवन वाला व्यवहार कहा
जाता है । सत्व गुण और तम गुण के बीच में ऐसा व्यक्ति होता है जिसके पास ज्ञान तो
है पर उसका देह शरीर और मन की इच्छाओं के साथ बंधा हुआ है । ऐसा मनुष्य रजस अर्थात
पूर्ण अहंकार वाली मनःस्तिथिति के साथ जीता है । सत्व, रज और तम के अधिक या कम गुणों के मेल से मनुष्य का स्वभाव बनता है। हे भ्रम
में परे हुए लोगों ! निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना
कर्म किए नहीं रहता; क्योंकि सारा
मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा प्रवस हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया
जाता है। गीता अध्याय 3 का श्लोक 5 ने कर दी इस कथन की पुष्टि। वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब
प्रकार से प्रकृति के गुणों के द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से
मोहित हो रहा है ऐसा अज्ञानी "मैं कर्ता हूँ " ऐसा मानता है । गीता
अध्याय 3 का श्लोक 27 ने कर दी इस कथन
की पुष्टि। दुर्योधन को देखो - ये धर्म तो
जानते हैं लेकिन धर्म का अनुसरण नहीं करते हैं । इनके जीवन का केन्द्र अहंकार है ।
अर्थात इनमें तमो गुण कम है और रजो गुण बहुत अधिक है और सत्व गुण पूर्णतया नहीं है ।
दुःशासन को देखो - इन्होंने बिना विचार किए
सदैव अपने बड़े भाई का आदेश माना है अर्थात इनमें केवल तमो गुण है । भीष्म
पितामह को देखो - इनमें सत्व गुण के साथ तमो गुण का मेल है । इनमें अहंकार नहीं है किन्तु ये पुरातन धर्म, पुरानी परम्पराओं और प्रण के साथ बंधे हैं । आवश्यकता
होने पर भी अपना प्रण नहीं छोड़ता । द्रोणाचार्य जी को देखो - इनमें ज्ञान और
अहंकार दोनों ही हैं । ज्ञान तो मनुष्य को मुक्ति दिलाता है किन्तु इनका अहंकार
इन्हें मुक्त नहीं होने देता है। आगे कुछ भी सुनाने से पहले यह तो जान लो कि मनुष्य
क्या है ? मनुष्य केवल पांच महाभूत
नहीं, पांच पदार्थ नहीं,
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ नहीं, पांच कर्मेन्द्रियाँ नहीं, तीन गुण नहीं, ऐसे 23 वस्तुओं का मेल भी नहीं।
मनुष्य को चलने - फिरने तथा कार्य करने हेतु शक्ति की आवश्यकता होती है और उस शक्ति
को चेतना कहते हैं । मनुष्य चेतना के साथ इन 23 वस्तुओं का मेल का नाम प्रकृति है । 24 वस्तुओं से बने मनुष्य नामक यंत्र में निवास
करता है ईश्वर का अंश जिसे पुरुष कहते हैं । इसलिए सत्यतः यह कहा गया है कि मनुष्य की रचना दो तत्वों से हुई है - (1) प्रकृति और (2)
पुरुष । ईश्वर का अंश जिसे पुरुष कहते हैं उसको
आत्मा कहा गया है और 24 वस्तुओं से बने मनुष्य नामक यंत्र को प्रकृति कहा गया है । जब प्रकृति और पुरुष का मेल होता है अर्थात जब परमात्मा का अंश
आत्मा बनकर देह में निवास करता है तब मनुष्य जीवित होता है। जैसे मनुष्य रथ का उपयोग करता है ठीक वैसे ही आत्मा भी शरीर नामक यंत्र का उपयोग करता
है। आत्मा शरीर के माध्यम से शरीर के सुख - दुःख का उपभोग करती है । किन्तु आत्मा
शरीर नहीं है । शरीर का नाश किया जा सकता
है किन्तु आत्मा का नाश नहीं किया जासकता । इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते,
इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकती और इसको वायु नहीं सूखा सकती क्योंकि
यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य है, अक्लेद्य है और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह
आत्मा नित्य, सर्वव्यापी,
अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है। अर्थात आत्मा शरीर में रहते हुए भी अमर है ।
गीता अध्याय 2 का श्लोक 23 और 24 ने कर दी इस कथन की पुष्टि। जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र उतार कर नया वस्त्र
धारण करता है ठीक उसी तरह आत्मा पुराना शरीर छोड़ कर बार - बार नया शरीर धारण करती
है ।
गीता अध्याय 2 का श्लोक 22 ने कर दी इस कथन की पुष्टि। शरीर के रूप रंग को लोग इन आँखों से तो देखता है परन्तु आत्मा नहीं दिखता है ।
इसका ये मतलब नहीं है कि मनुष्य आत्मा को देख नहीं सकता । हे मनुष्य ! आत्मा के
रूप को देखना और जानना असंभव भी नहीं है । अंधे भी जीते हैं, गूंगे भी जीते हैं, जिनके पास हाथ - पैर नहीं वे भी जीते हैं , जिसके शरीर की चेतना चली जाती है या जिसको
मूर्छा आजाती है या जो कोमा में चला जाता है वो भी जीते हैं; इसलिए हे मनुष्य ! मनुष्य का चेतन तत्व भी
शरीर नहीं । इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने अन्दर खोज करता है कि मैं इन्द्रियाँ नहीं,
कर्मेन्द्रियाँ नहीं, मैं शरीर नहीं,
मैं मन नहीं, मैं बुद्धि नहीं, मैं ज्ञान नहीं - जो इस प्रकार समझता जाता है वह अन्त में आत्मा को जान ही जाता है । प्रकृति के 24
पदार्थों
से घिरी आत्मा इस बात को भूल जाता है कि वह परमात्मा का अंश है । अधिकतर
आत्माएं अपनी देह को ही सब कुछ मानती है। स्वयं देह से भिन्न इस आत्मा को जान ही नहीं पाती है । शरीर को जो सुख - दुःख,
स्वाद - गन्ध इत्यादि का अनुभव होता है आत्मा उसको
अपना अनुभव मान लेती है और बदलाव का
प्रयास ही नहीं करती है। जो आत्माएँ बदलाव का प्रयत्न नहीं करते , निरन्तर अधर्म करती रहती है उनको दण्ड देना
अनिवार्य हो गया है । हे मनुष्य ! तुम यह जान लो कि तुम एक शरीर नहीं बल्कि तुम
एक आत्मा हो । जो इस शरीर में जन्म लिया
है वे सब शरीर मरेंगे किन्तु ये आत्मा अमर है ।
ये आत्मा पुनः नया शरीर धारण करेंगे । जब तक तुम स्वयं को शुद्ध आत्मा के रूप में
जान नहीं लेते, जब तक तुम अधर्म का
त्याग करके धर्म में ढृढ़ नहीं होगे तब तक तुम जन्म लेते रहोगे और मरते रहोगे । जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा और जो मरता है वह फिर
से अवश्य जन्म लेगा । गीता अध्याय 2 का श्लोक 27 ने कर दी इस कथन
की पुष्टि। अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है ? जिस मार्ग पर चल कर जो प्राणी स्वयं को आत्मा के रूप में
देखता है, परमात्मा के रूप के अंश
में स्वयं को जानता है उस मार्ग को धर्म कहते हैं । जब मनुष्य स्वयं को परमात्मा के
अंश के रूप में जान लेता है तब उसे यह अनुभूति होती है कि " ये सृष्टि ही
परमात्मा है और ये परमात्मा ही सृष्टि है। सृष्टि और
परमात्मा में कोई भेद नहीं है।" जो मनुष्य इस सत्य को जान लेता है वह दूसरे
मनुष्य और प्राणियों की ओर निर्दयता और कठोरता से पेश नहीं आता । वह इस बात को जानता है कि जीव
कटने से पीड़ा केवल जीव को ही नहीं होता है बल्कि इस पीड़ा की अनुभूति पूरे शरीर को होती है। ठीक वैसे ही एक मनुष्य को पीड़ा होती है तो
समग्र संसार उस पीड़ा का अनुभव करता है । जब तक पूरे संसार में यदि एक मनुष्य भी
पीड़ित है तब तक वास्तव में किसी का भी सुख सम्पूर्ण नहीं है । इस बात को जानने के
बाद जब मनुष्य का ह्रदय करुणा से भर जाय तो उसे धर्म कहते
हैं। जब ईश्वर के इस स्वयं के धर्म (स्वधर्म) की स्थापना नहीं हो जाती तब तक पृथ्वी पर कलियुग का प्रभाव बना ही रहेगा। किन्तु सृष्टि चक्र के अनुसार कलियुग का अन्त होना अनिवार्य होगया है और पृथ्वी पर सत्ययुग के प्रभाव का आजाना भी अनिवार्य हो गया है। इसलिए ईश्वर के स्वधर्म की स्थापना हो यह कार्य अत्यन्त अनिवार्य होगया है और पृथ्वी पर धर्म की स्थापना होकर रहेगा । युग परिवर्तन निश्चित ही होगा ।