Word Of Aadishri Arun On the Occasion of Naam-Daan

नाम दान ने शुभ अवसर पर आदिश्री अरुण के वचन
Word Of Aadishri Arun On the Occasion of Naam-Daan

ईश्वर ने सबसे पहले मनुष्य से प्यार किया तब बाद में मनुष्य ने ईश्वर से प्यार किया
ईश्वर को महसूस करना इबादत से कम नहीं
जरा छूकर बता ईश्वर की मुस्कान, आंशुओं से नम तो नहीं 

प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई
जा मारग हरि जी मिलै, प्रेम कहाये सोई।

सभी लोग प्रेम-प्रेम बोलते-कहते हैं परंतु प्रेम को कोई नहीं जानता है।
जिस मार्ग पर ईश्वर  का दर्शन हो जाये वही सच्चा प्रेम का मार्ग है।

प्रीति बहुत संसार मे, नाना बिधि की सोय
उत्तम प्रीति सो जानियकल्कि नाम से जो होय।

संसार में अपने प्रकार के प्रेम होते हैं। बहुत सारी चीजों से प्रेम किया जाता है।

पर सर्वोत्तम प्रेम वह है जो भगवान कल्कि के नाम से किया जाये।


प्रेम ना बारी उपजै प्रेम ना हाट बिकाय
राजा प्रजा जेहि रुचै,शीश देयी ले जाय।

प्रेम ना तो खेत में पैदा होता है और हीं बाजार में विकता है।
राजा या प्रजा जो भी प्रेम का इच्छुक हो वह अपने सिर का यानि सर्वस्व त्याग कर प्रेम
प्राप्त कर सकता है। सिर का अर्थ गर्व या घमंड का त्याग प्रेम के लिये आवश्यक है।

प्रीत पुरानी ना होत है, जो उत्तम से लाग
सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।

प्रेम कभी भी पुरानी नहीं होती यदि अच्छी तरह प्रेम की गई हो जैसे सौ वर्षो तक भी
वर्षा के जल में रहने पर भी पथ्थर से आग अलग नहीं होता।

अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है
किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है।
प्रेम का निर्वाह अत्यंत कठिन है। सबों से इसको निभाना नहीं हो पाता है।
जैसे मोम के घोंड़े पर चढ़कर आग के बीच चलना असंभव होता है।

प्रेम पंथ मे पग धरै, देत ना शीश डराय
सपने मोह ब्यापे नही, ताको जनम नसाय।

प्रेम के राह में पैर रखने वाले को अपने सिर काटने का डर नहीं होता।
उसे स्वप्न में भी भ्रम नहीं होता और उसके पुनर्जन्म का अंत हो जाता है।

प्रे्रेम भक्ति मे रचि रहै, मोक्ष मुक्ति फल पाय
सब्द माहि जब मिली रहै, नहि आबै नहि जाय।

जो प्रेम और भक्ति में रच-वस गया है उसे मुक्ति  - मोक्ष  का फल प्राप्त होता है।
जो  आदिश्री अरुण के शब्दों-उपदेशों से घुल मिल गया हो उसका पुनः जन्म या मरण नहीं होता है।
राम रसायन प्रेम रस, पीबत अधिक रसाल
कबीर पिबन दुरलभ है, मांगे शीश कलाल।

कल्कि नाम की दवा प्रेम रस के साथ पीने में अत्यंत मधुर है। आदिश्री कहते हैं कि इसे पीना
अत्यंत दुर्लभ है क्यों कि यह सिर रुपी अंहकार का त्याग मांगता है।

सबै रसायन हम किया, प्रेम समान ना कोये
रंचक तन मे संचरै, सब तन कंचन होये।

समस्त दवाओं - साधनों का आदिश्री ने उपयोग किया परंतु प्रेम रुपी दवा के
बराबर कुछ भी नहीं है। प्रेम रुपी साधन का अल्प उपयोग भी हृदय में जिस रस का संचार
करता है उससे सम्पूर्ण शरीर स्र्वण समान उपयोगी हो जाता है।

प्रे्रेम बिना धीरज नहि, विरह बिना बैरा
ज्ञान बिना जावै नहि, मन मनसा का दाग।

धीरज से प्रभु कल्कि का प्रेम प्राप्त हो सकता है। कल्कि प्रभु से विरह की अनुभुति हीं बैराग्य को जन्म देता है।
आदिश्री अरुण के ज्ञान बिना मन से इच्छाओं और मनोरथों को नहीं मिटाया जा सकता है।

प्रे्रेम छिपाय ना छिपै, जा घट परगट होय
जो पाऐ मुख बोलै नहीं, नयन देत है रोय।

हृदय का प्रेम किसी भी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता वह मुहॅं से नहीं बोलता है पर उसकी आॅखे प्रेम की

विह्वलता के कारण रोने लगता है।


पीया चाहै प्रेम रस, राखा चाहै मान
दोय खड्ग ऐक म्यान मे, देखा सुना ना कान।

या तो आप प्रेम रस का पान करें या आंहकार को रखें। दोनों एक साथ संभव नहीं है

एक म्यान में दो तलवार रखने की बात देखी गई है ना सुनी गई है।



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