Preparation of Guru Parv Festival

गुरुपर्व महोत्सव की तयारी 

Preparation of Guru Parv Festival

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥  
गुरु साक्षात  परम  ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और महेश इनके नीचे के श्रेणी में हैं 
इसलिए
गुरु की रहमत से हाथ की लकीर बदल जाती है

लेता जो भी गुरु का नाम , पल भर में उसकी तक़दीर बदल जाती है....

भारतीय परम्परा में गुरु का स्थान सबसे ऊंचा माना गया है |

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥

गुरु और भगवान दोनों खड़े, पहले किसको प्रणाम करूँ
गुरु की ही यह बलिहारी है कि इन्होंने आपको  भगवान  से मिला दिया   |       
श्रीमद्देवीभागवत, स्कंध 7, शीर्षक "देवी के द्वारा ज्ञानोपदेश - भक्ति का प्रकार तथा ज्ञान की प्राप्ति की महिमा" पेज नम्बर 565 में तीन बातें कही  गई है  -
(1)जिसके द्वारा ब्रह्म विद्द्या का उपदेश होता है , वह परमेश्वर ही है . इस विद्द्या का बदला नहीं चुकाया जासकता है | इसलिए गुरु के समीप शिष्य सदा ऋणी ही रहता है|
(2)ब्रह्म जन्मदाता  - ब्रह्म को प्राप्त करा देने वाला गुरु जन्मदाता माता - पिता से भी अधिक पूज्य है | क्योंकि पिता से प्राप्त जीवन तो नष्ट हो जाता है ; परन्तु ब्रह्मरूप जीवन कभी नष्ट नहीं होता है | इसलिए गुरु की आज्ञा को काट कर माता-पिता की आज्ञा का पालन करना अपने आपको नर्क में डाल देना है  |
(3)ब्रह्मदाता गुरु से कभी द्रोह न करें | ब्रह्म दाता गुरु सबसे श्रेष्ट है | शिव के रुष्ट होने पर गुरु बचा लेते हैं; पर गुरु के रुष्ट होने पर शिव नहीं बचा पाते  |       
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय |
जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया ||
कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है | जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं |
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय |
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय ||
साबुन बेचारा क्या करे, जब उसे गांठ में बांध रखा है |जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्वल हो | भाव - ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो |

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट |
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ||
गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं |    
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं |
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं ||
गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | जो शिष्य ऐसा करता है तो  उस  शिष्य - सेवक को तीनों लोकों से भय नहीं है |

गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत |
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत ||
जैसे बने वैसे गुरु को प्रेम का निर्वाह करो | निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु - स्वामी पास ही हैं |
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर |
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर ||
यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया | अब देने को रहा ही क्या है |
जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव |
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा ||
जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर - नर मुनि और देवता सब थक गये | लोगों, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो |

जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान |
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान ||
दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है | उसमें  अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो |


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