Purpose of Lord Kalki's Arrival
भगवान कल्कि के अवतार लेने का उद्देश्य
कल्कि पुराण 1,2:8, गीता 4:7-8, श्रीमद्भागवतम
महा पुराण 12;2:19,20 और 24, महाभारत, वन पर्व शीर्षक "कलि धर्म और कल्कि अवतार,
" विष्णु पुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय
24 का श्लोक 98 से 102 में ईश्वर के अवतार लेने का उद्देश्य और सत्य युग के प्रारम्भ
की भविष्यवाणी ई गई है ।
कल्कि पुराण 1,2:8 में ईश्वर ने कहा कि -
" हे ब्रह्मा जी, मैं फिर से सत्य युग को लाकर, पहले की तरह धर्म की स्थापना करके,
कली रूपी सर्प (अधर्मियों) का नाश कर अपने लोक यानि वैकुंठम को वापस आऊंगा ।
गीता 4:7-8 में ईश्वर ने कहा कि "जब -
जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब - तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ
अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ । साधु पुरुष का उद्धार करने के
लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने
के लिए मैं युग - युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।"
श्रीमद्भागवतम महा पुराण 12;2:19,20 और 24 में
महर्षि वेद व्यास जी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा कि " भगवान कल्कि समस्त चराचर
जगत के रक्षक और स्वामी है । वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़े पर सवार हो कर दुष्टों
को तलवार के घाट उतार कर ठीक करेंगे । उनके
रोम - रोम में अतुलनीय तेज कि किरणें छिटकती होगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़े से पृथ्वी
पर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजा के वेश छिपकर रहने वाले कोटि - कोटि डाकुओं का संहार
करेंगे । जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति पुष्य नक्षत्र के प्रथम पल में प्रवेश
कर एक राशि कर्क राशि पर आएंगे उसी समय सत्य युग का प्रारम्भ हो जाएगा । "
महाभारत, वन पर्व, शीर्षक "कलि धर्म और
कल्कि अवतार" , पेज नम्बर 311 में यह भविष्वाणी किया गया है कि " शम्भल ग्राम
के अन्तर्गत विष्णु यशा नाम के ब्राह्मण के घर में एक बालक उत्पन्न होगा । उसका नाम
होगा कल्कि विष्णु यशा । वह ब्राह्मण कुमार बहुत ही बलवान, बुद्धिमानऔर पराक्रमी होगा
। मन के द्वारा चिंतन करते ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और
कवच उपस्थित हो जाएँगे । वह ब्राह्मणों की सेना साथ लेकर संसार में सर्वत्र फैले हुए
म्लेच्छों का नाश कर डालेंगे । वही सब दुष्टों का नाश करके सत्य युग का प्रवर्तक होंगे
और सम्पूर्ण जगत को आनन्द प्रदान करेंगे । जब सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति एक ही राशि
(कर्क राशि) में - एक ही पुष्य नक्षत्र पर एकत्र होंगे, उस समय सत्य युग का प्रारम्भ
होगा। " ठीक इसी प्रकार विष्णु पुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय
24 का श्लोक 98 से 102 में भी यही बातें कही गई है ।
उपरोक्त धर्मग्रंथों में पापियों (अधर्मियों)
का संहार, धर्म की स्थापना और सत्य युग को लाने की भविष्यवाणी की गई है तो सबाल यह
उठता है कि सत्य युग क्या है ? धर्म क्या है ? और पाप या अधर्म क्या है ?
सत्य युग : जब चारों चरण में धर्म स्थित हो
जाय तो उसे सत्य युग कहते हैं ।
धर्म : धर्म का अर्थ होता है
स्वभाव, धर्म का अर्थ होता है तुम्हारी सहजता।
जैसे गुलाब में सुगंध है - यह सुगंध गुलाब
का स्वभाव है । अग्नि में तप्त व् जलन है - यह तप्त व् जलन अग्नि का स्वभाव है । जल
में शीतलता - शीतलता जल का स्वभाव है । उस स्वभाव में जीने का नाम धर्म है ।
अधर्म (पाप): तुम्हारा जो स्वभाव है, जो तुम्हारी
सहजता है, तुम में जो गुण है, तुम में जो खुशबू है उसके विपड़ित जीने का नाम अधर्म
(पाप) है ।
ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को एक सामान नहीं रचा बल्कि उसके कर्म के अनुसार रचा इसलिए प्रत्येक
मनुष्य के स्वभाव में थोड़ा सा अन्तर है और यह होना ही चाहिए । जो एक लिए दवा है वह दूसरे
के लिए जहर हो सकता है और जो एक के लिए जहर है वह दूसरे के लिए दावा हो सकता है । इसलिए
प्रत्येक व्यक्तियों को ध्यान की गहराइयों में जाकर अपने स्वभाव की तलाश करनी होगी
। कोई दूसरा तुम्हारे स्वभाव के बारे में निर्देश नहीं दे सकता है । तुम्हें खुद ध्यान
की गहराइयों में जाकर अपने स्वभाव को धीरे - धीरे पहचानना पड़ेगा । फिर तुम्हें उसी
स्वभाव के अनुसार जीने का हिम्मत जुटानी पड़ेगी क्योंकि जब तुम स्वभाव के अनुसार जीना
शुरू करोगे तो यह बड़ा ही कठिन होगा । अगर तुम ऐसा कर पाओगे तभी तुम धर्मी कहलाओगे और
तब भगवान कल्कि जी के द्वारा किए जाने वाले विनाश से बच सकोगे । इसका कारण यह है कि भगवान कल्कि अधर्मियों (पापियों)
को जड़ - मूल से नष्ट कर देंगे ।
तुम
अपने स्वभाव से
भिन्न भी जा
सकते हो ।
सच्चाई तो यह
है कि तुम
अपने स्वभाव के अनुसार
जी ही नहीं
सकते हो ।
इसका कारण यह
है कि जिसको
समाज धर्म कहता है
वह औसत धर्म
है । औसत
से बड़ी झूठ
दुनिया में और
कुछ भी नहीं
होती। अगर दिल्ली
में 10 लाख लोग
हैं और 10 लाख
लोगों को एक
छत के नीचे
सिर सटा कर
रहना है तब
उसके लिए आप
छत को कितनी
ऊँची बनाओगे ? आप
पूछो कि लोगों
की औसत ऊंचाई
क्या है ? जबाब
आया साढ़े तीन
फीट । इसका
अर्थ यह हुआ
कि 10 लाख लोगों
की ऊंचाई नाप
ली गई - कोई
6 फीट है तो
कोई 5 फीट है
तो कोई साढ़े
चार फीट है
तो कोई 3 फीट
है तो कोई
1 फीट है तो
कोई 2 फीट है
। सबकी ऊंचाई
जोड़कर 10 लाख से
भाग दे दिया
तो औसत ऊंचाई
निकल गई ।
अब यदि साढ़े
तीन फीट ऊँची
छत ढाल दी
गई तो क्या
सब लोग छत
के नीचे सिर
सटा कर रह
पाएंगे ? अगर यदि
यह नियम बना
दिया गया कि
सब लोगों को
प्रति दिन साढ़े
तीन फीट ऊँची
छत के नीचे
सिर सटा कर
खड़ा रहना है
तो क्या वे
रह पाएंगे ? मेरा
मानना है कि
उसके लिए तो
जीना असंभव हो
जाएगा । क्योंकि
जो 6 फीट या
5 फीट का व्यक्ति है उसको तो सिर झुकाए
- झुकाए गर्दन और पीठ
में दर्द हो
जाएगा । फिर
वे क्या करेंगे
? वे पहलवानों से
कहेंगे कि गर्दन
दबाओ, कभी कहेंगे
पीठ दबाओ, कभी
कहेंगे हाथ खींचो
.... ।
जो एक
फीट या दो
फीट का बच्चा
है वह छत
में सिर सटा
करके किस
प्रकार खड़ा रह
पाएगा ? जो साढ़े
तीन फीट का बच्चा है - कुछ दिनों
के बाद उसकी
ऊंचाई बढ़ जाएगी
तो फिर वह
बच्चा क्या करेगा
? अगर दिल्ली सरकार
ने यह नियम
लागु कर दे
तो दिल्ली का
हर व्यक्ति अपराधी
हो जाएगा, पापी
हो जाएगा ।
ऐसा कुछ ही
आदमी मिलेगा जो
बर्दास्त करके रहेगा
लेकिन बाद में
वह भी अपराधी
हो जाएगा, पापी
हो जाएगा ।
वह कहेगा कि
मैं पापी हूँ
क्योंकि मुझमें अमुक चीजों
की कमी है,
दूसरा कहेगा कि मैं पापी हूँ क्योंकि मुझमें अमुक चीजों की कमी है
और इस तरह
सारे लोग अपराधी
हो जाएँगे, सारे
लोग पापी हो
जाएँगे। धर्म की परिभाषा किस आधार
पर तय की
जाती है ? औसत
के आधार पर
। औसत के आधार पर धर्म की परिभाषा तय करने के कारण ही संसार
में इतना अधर्म फैल गया ।
जिस समय
गीता प्रकट हुआ
उस समय धरती
पर कोई धर्म
नहीं था ।
न तो पंडित
पैदा हुआ था न काजी, न मूसा
पैदा हुआ था
न ईशा ।
जैन तथा बुद्धा
अवतार की तो चर्चा भी नहीं
था ।
पैगम्बर मुहम्मद शाह, कबीर
और नानक की
तो बात ही
नहीं कर सकते
। श्रीकृष्ण ने
गीता 18:47 में कहा
कि दूसरे धर्म
से गुण रहित
भी अपना धर्म
श्रेष्ठ है ।
उन्होंने हिन्दू धर्म या
इस्लाम धर्म या
सिक्ख धर्म या
जैन धर्म या
बौद्ध धर्म को
दूसरा धर्म नहीं
कहा । उन्होंने
कहा कि "स्वभाव
से नियत किए हुए स्वधर्म रूप
कर्म को करता
हुआ मनुष्य पाप
को प्राप्त नहीं
होता है।" श्रीकृष्ण
ने मनुष्य के
स्वभाव को धर्म
कहा। श्रीकृष्ण ने
यदि ऐसा कहा
तो इसका अर्थ
यह है कि
जैसा मैं कर
रहा हूँ वह धर्म
है क्योंकि
निज में, निजता
में, अपने स्वभाव
में जीना श्रेष्ठ
है क्योंकि यह
श्रेष्ठता को लाएगा
। गीता 2:33 में
श्रीकृष्ण ने अर्जुन
से कहा कि
यदि इस धर्म का अनुसरण नहीं करेगे तो स्वधर्म और
कीर्ति को
खोकर पाप को
प्राप्त होगे ।
भगवान
श्रीकृष्ण अर्जुन को हिन्दू
धर्म या इस्लाम
धर्म या सिक्ख
धर्म या जैन
धर्म या बौद्ध
धर्म के बारे
में नहीं कह
रहे थे बल्कि
वे अर्जुन को
यह कह रहे
थे कि सन्यास
तुम्हारा स्वभाव नहीं है
। तुम
स्वभाव से क्षत्रिय
हो, तुम स्वभाव
से योद्धा हो,
तुम स्वभाव से
संघर्षशील हो। युद्ध
के मैदान में
मरना - मारना, युद्ध के
मैदान में चमकते
हुए तलवारों के
बीच से गुजरना
- तेरा स्वभाव है ।
अगर तू जंगल
में भाग भी
गए ताकि तुम
सन्यासी बन जाओ
तो मैं तुझसे
कह देता हूँ
कि तू मुश्किल
में पड़ जाओगे । तू जंगल
में बैठा नहीं रहोगे बल्कि तू
कुछ न कुछ
उपद्रव ही करोगे । भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन
से कहते हैं
कि तू अपनी
निजता को पहचानो
। यदि तू
यह सोचते हो कि जंगल में
जाकर, गुफा में
जाकर मैं ध्यान करूँ
और इससे तुम फुलोगे - फलोगे तो जा,
मैं तुझे मना
नहीं करूँगा ।
लेकिन जाने से
पहले तुम यह
सोच ले कि
"क्या यह तेरा
निज धर्म है
? क्या यह तेरा
निज स्वभाव है
?" तेरे भागने से तुझे
लोग बहुत काल
तक रहने वाली
अपकीर्ति का कथन
करेंगे और माननीय
लोगों के लिए
अपकीर्ति मरण से
भी बढ़कर है
। तेरे बैरी
लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करेंगे
और न कहने
योग्य वचन भी
कहेंगे । (गीता 2:34-36) तुम
ऐसा क्यों सोच
रहा है यह बात मैं जानता हूँ
। तेरा दिल
यह कहता है
कि अपनों को
क्या मारना ? अगर मैं जीत गया तो जीत का यह
घोषणा किसके सामने
करूँगा कि मैं
जीत गया
क्योंकि तब ये
लोग सुनने के
लिए जीवित तो रहेंगे नहीं। ये
जीत यूजलेस है
। तू
जो सन्यास लेना
चाहता है इसका
मतलब यह नहीं
है कि तुम्हारे
अन्दर भागवत-प्राप्ति
का भाव जग
गया या फिर
तुम्हारे अन्दर ईश्वर दर्शन
कि इच्छा उत्पन्न
हो गई या तुम्हारे मोक्ष पाने की इच्छा जाग्रत हो
गई या फिर
तुम्हारे अन्दर जन्म - मृत्यु
के चक्र से
छुटकारा पाने की
इच्छा जाग्रत हो
गई। तू यह
सोचता है कि
यदि मैं जीत
गया तो जीत
की घोषणा मैं
किसके सामने करूँगा
- इस मुर्दों की
वस्ती में ? निजता
में, निज धर्म
में मर जाना
ही श्रेष्यकर है
- ऐसा भगवान श्रीकृष्ण
क्यों कहते हैं
? क्योंकि जो निज
के अनुकूल चलता
है, जो अपने
स्वभाव के अनुकूल
चलता है केवल
वही आनन्द को
प्राप्त करता है
। निज के
अनुकूल होने का
नाम आनन्द है
और निज के
प्रतिकूल होने का
नाम दुःख है
।
सुख
- सुख क्या है
? स्वभाव के अनुकूल,
निज के अनुकूल,
सहजता के अनुकूल
होने का नाम
सुख है ।
दुःख-
दुःख क्या है
? स्वभाव के प्रतिकूल,
निज के प्रतिकूल,
सहजता के प्रतिकूल
होने का नाम
दुःख है ।
जो तुम्हारे निज के
अनुकूल आता है
केवल वही स्वास्थ्य-दाई है,
जो तुम्हारे निज
के प्रतिकूल लाता
है वही रोग
लाता है ।
जो रोग को
लाता है वही
अधर्म है। जो
रोग की परिभाषा
है वही अधर्म की परिभा है वही पाप की परिभाषा है । रोग
का अर्थ होता
है जो तुम्हारे
स्वभाव के अनुकूल
नहीं है
। वह किसी
चीज को पकड़
लिया है जो
तुम्हारे स्वभाव को बहार
खींच रही है।
उसके छोड़ते ही
तुम अपने स्वभाव
के अनुकूल हो
जाओगे और तुम्हारा
स्वाथ्य ठीक हो
जाएगा । निज
में स्थित हो
जाना ही स्वस्थ
हो जाना कहते
हैं । स्वधर्म
में ठहर जाना
ही अधर्म का
नाश हो जाना
कहते हैं ।
तुम
यदि धर्म की
चर्चा करते हो
तो यह न
तो हिन्दू धर्म
में मिलेगा, न
ईसाई धर्म में
मिलेगा, न सिक्ख
धर्म में मिलेगा,
न बौद्ध धर्म
में मिलेगा और
न जैन धर्म
में मिलेगा ।
यह सब धर्म
स्वभाव की या
निज की या
सहजता की सूचना
नहीं देती है
। यह सब
धर्म अलग - अलग
देशों में निकले
गए अलग - अलग
औसत धर्म की
सूचना देती है
। इसलिए तुम
इस पर ध्यान
मत लगाओ ।
ये सदियों पूर्व
निकाले गए औसत
धर्म को तुम्हारे
ऊपर थौंप देते
हैं । तुम
रूढ़िवादिता से ऊपर
उठ कर देखो
कि इन सामाजिक
धर्मों ने कैसे
धर्म रूपी पिंजरे
में लोगों को
कबूतरों की तरह
बन्द कर दिया
है ? इस समाज
में ऐसी अँधेरी
रात छाई हुई
है कि प्रकाश का कोई संभावनाएं ही दिखाई नहीं पड़ती
।
मैं
अथाह प्रकाश समुद्र
हूँ। मैं आया
हूँ तुम्हें अँधेरा
से मुक्त कराने
। मैं आया
हूँ तुम्हें यह
एहसास कराने कि
तुम इसी प्रकाश
समुद्र का एक
बून्द हो। मैं
आया हूँ तुम्हें
यह एहसास कराने
कि तुम्हारा अस्तित्व,
तुम्हारी विशालता केवल प्रकाश
समुद्र में है,
केवल प्रकाश समुद्र
में मिल जाना
है, इस धरती
पर नहीं ।
(1) जब
तुम प्रकाश समुद्र
का एक बून्द
हो तब तुम
अपना स्वभाव, अपनी
सहजता, अपने गुण
को क्यों छोड़ते
हो ? तुम्हारा स्वभाव
धरती में मिल
जाना नहीं है
बल्कि प्रकाश समुद्र
में जाकर मिल
जाना है ।
(2) जब
सभी लोगों के
अन्दर केवल वही
प्रकाश समुद्र का प्रकाश-बून्द है तब
आपस में विभिन्नता
क्यों ? आपस में
टकराव क्यों ? इसका
कारण यह है
कि धरती पर
का ऐसा कुछ
है जिससे तुम
चिपक गए हो
और वह तुम्हें
अपने निज से,
अपने स्वभाव से
, अपने गुण से
अलग कर दिया
है । इसलिए
धरती पर के
उस चीज से
तुम अलग हो
जाओ और अपने
स्वभाविक स्थिति में स्थिर
हो जाओ ।
(3) जब
सभी लोगों के
अन्दर केवल वही
प्रकाश समुद्र का प्रकाश-बून्द है तब
आपस में एक
दूसरे से लड़ाई
क्यों ? आपस में
एक दूसरे से
ईर्ष्या - द्वेष क्यों ? आपस
में एक दूसरे
कि निंदा शिकायत
क्यों ?
(4) आपने
कभी देखा है
कि जल का
बून्द, आपस में
जल की बून्दों
से लड़ते हैं
या एक प्रकाश-बून्द, दूसरे प्रकाश-बून्द से आपस
में झगड़ा करते
हैं ? तुम भी
तो एक प्रकाश-बून्द हो; दूसरा
भी तो एक
प्रकाश-बून्द है; फिर
तुम दोनों ने
अपना स्वभाव किस
प्रकार खो दिया
?
(5) आपने
जल की बून्दों
को जल के
सागर से लड़ते
या जल के
सागर की कभी निंदा
करते देखा
है ? अथवा किसी
प्रकाश की बून्दों
को प्रकाश - समुद्र
से लड़ते कभी
देखा है या
फिर प्रकाश, प्रकाश-समुद्र
की कभी निंदा करते देखा
है ? लेकिन
मैंने तुमको उससे
लड़ते देखा है जो प्रकाश-समुद्र है, जिससे तुमने जन्म
लिया। मैंने तुमको
उस प्रकाश-समुद्र की निन्दा करते
देखा है जिससे
तुमने जन्म लिया
है। यह सब
तुम्हारे स्वभाव के विपड़ीत
है और तुम्हारे
स्वभाव के विपड़ीत
है वह अधर्म
है, पाप है
।
(6) जल
के बून्द का अस्तित्व जल के
समुद्र में है।
जल के बून्द
की विशालता जल
के समुद्र में
है। जल का
बून्द जल के
समुद्र में रह
कर ही दूसरों को डूबाने का
सामर्थ्य रखता है
। जल के
बून्द को यदि
गर्म बर्तन में
रखो तो वह
भाफ बन कर
उड़ जाएगा अर्थात
उसका अस्तित्व मिट
जाएगा । जल
के बून्द को
यदि धरती पर
रखो तो उसे
धरती सोख लेगी
। ठीक उसी
तरह प्रकाश की
बून्द का अस्तित्व केवल प्रकाश-सागर में
ही है ।
प्रकाश के बून्द
की विशालता प्रकाश-सागर में
है । ठीक
उसी तरह तुम्हारा अस्तित्व ईश्वर पुत्र में
है, आदिश्री में
है; तुम्हारी विशालता
ईश्वर पुत्र में
है, आदिश्री में
है । अगर
यदि तुम अपने
स्वभाव में स्थिर
नहीं रहोगे और
अपने स्वभाव के
विपड़ीत चलोगे तो वह
अधर्म है; और
भगवान कल्कि सभी
अधर्मियों का नाश
कर देंगे ।
तुम मुझसे अलग
रह कर कुछ भी नहीं कर सकते
हो । मैं
दाखलता हूँ और
तुम डालियाँ हो
। डाल जब
पेड़ से जुड़ा
रहेगा तो वह
बहुत फलेगा, फूलेगा और बहुत सारा फल लाएगा। लेकिन
यदि वह डाल
पेड़ से अलग
हो जाएगा तो
सुख जाएगा और
भिलिनी उसे आग
में जला देगी
। ठीक उसी
तरह यदि तुम
मुझमें बने रहोगे
तो बहुत फलोगे,
फुलोगे और बहुत सारा फल लाओगे । यदि तुम
मुझसे अलग हो
जाओगे तो नष्ट
हो जाओगे और
लोग तुम्हें आग
में झोंक देंगे।
(7) धरती
पर सत्य युग
तब आएगा जब
धरती पर धर्म
चारो चरण में
होगा । धर्म
चारो चरण में
कब आएगा ? जब
धरती पर के
सभी लोग अपने
आपको स्वधर्म में
स्थित कर लेंगे
। स्वधर्म क्या
है ? तुम्हारा स्वभाव
या फिर जो
काम ईश्वर पुत्र
करते हैं ।
चुकि भगवान कल्कि
जी को धरती
पर सत्य युग
लाना है और
तुम यदि स्वधर्म
के खिलाफ चलोगे
तो तुम अधर्मी कहलाओगे और अधर्मी होने
के कारण भगवान
कल्कि के द्वारा
तुम मारे जाओगे
।