दुःख के क्या हैं 7 कारण ?
ईश्वर पुत्र अरुण
दुःख के क्या हैं 7 कारण ?
कामना मनुष्य से पाप कराती है और कामना से उत्पन्न होने वाला क्रोध और लोभ यही मनुष्य को पाप में लगाते हैं और पाप से दुख होता है तथा वह दुर्गति में जाता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य के अन्दर कामना प्रवेश कैसे करती है ? गीता 2 :62 में ईश्वर ने कहा कि विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष कि उन विषयों में आसक्ति हो जाती है । आसक्ति से उन विषयों कि कामना उत्पन्न होती है और कमाना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है । जब कामना की उत्पत्ति आसक्ति से होती है तब बुद्धिमानी कहती है कि आसक्ति को छोड़ देना चाहिए । यही कारण है कि ईश्वर ने गीता 3 :19 में कहा कि - "इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभांति करता रह ।"
मनुष्य के मन में, इंद्रियों में बुद्धि में, अहम में और विषयों में कामना का वास होता है। कामना ही मनुष्य का बैरी है, पतन का कारण है। इसलिए ज्ञान रूपी तलवार से इसका भेदन करना चाहिए ।
दुख के निम्नलिखित कारण हैं :-
(1) जीवन में सुख और दुख का कारण इंसान के कर्म हैं : मनुष्य जीवन कल में जो कर्म करता है उससे दो प्रकार का फल उत्पन्न होता है - पाप फल और पूण्य फल । यही दोनों प्रकार के फल का योगफल प्रारब्ध को जन्म देता है और प्रत्येक मनुष्य को अपने प्रारब्ध का फल भोगना पड़ता है । यदि किसी के जीवन में पूण्य फल की प्रतिशत मात्रा अधिक है और पाप फल की प्रतिशत मात्रा कम है तो वह व्यक्ति अपने जीवन में अधिक सुख भोगेगा और दुःख बहुत ही कम भोगेगा । यदि किसी के जीवन में पूण्य फल की प्रतिशत मात्रा कम है और पाप फल की प्रतिशत मात्रा अधिक है तो वह व्यक्ति अपने जीवन में अधिक दुःख भोगेगा और सुख बहुत ही कम भोगेगा । मनुष्य सुख और दुःख पूर्व जन्म के प्रारब्ध या कर्म के कारण ही भोगता है ।
(2) दुःखों का एक कारण पाप : पाप बुरे कर्म का फल है, जिससे हमें दुख मिलता है । किसी और का बुरा चाहने की इच्छा से कर्म करने पर पाप उत्पन्न होता है । यह उन कर्मों से उत्पन्न होता है जो प्रकृति अथवा ईश्वर के नियमों के विपरीत अथवा उसके विरुद्ध हों ।
(3) इच्छा की पूर्ति न होना : इच्छा की पूर्ति न होना दुःख का कारण है । सामान्य जीवन काल में दुःख का कारण इच्छा नहीं वरन इच्छा की पूर्ति न होना ही है । इसलिए आवश्यक है कि इच्छा संभव होने वाला हो और सामर्थ्य अनुकूल हो अन्यथा पहले सामर्थ्य अर्जित करो फिर इच्छा करो । इसलिए यदि इच्छा 'पालो' तो प्रयास ऐसा हो कि उसे 'प्राप्त कर लो' अन्यथा वही दुःख का कारण है , वही दुःख है , वहीं दुःख है।
(4) दुःखों का कारण क्रियमाण कर्मः दैनिक जीवन में कर्म करते समय, हम उन कर्मों का फल पुण्य एवं पाप के रूप में भोगते हैं जो पूर्व जन्म में किए हैं । पुण्य एवं पाप हमें अनुभव होनेवाले सुख और दुख की मात्रा निर्धारित करते हैं । पुण्य अच्छे कर्मों का फल है, जिनके कारण हम सुख अनुभव करते हैं । पाप बुरे कर्म का फल है, जिससे हमें दुख मिलता है । जब क्रियमाण कर्म पाप फल देने के लिए अपना पाँव फैलता है तब मनुष्य दुःख भोगता है । जब क्रियमाण कर्म पुण्य फल देने के लिए अपना पाँव फैलता है तब मनुष्य सुख भोगता है । यदि अगले जन्म में आप सुख पाना चाहते हैं तो आज ही क्रियामाण कर्म में पाप फल उत्पन्न होने ही नहीं दें । यदि क्रियामाण कर्म फल की प्रतिशत मात्रा जीरो होगा तब अगले जन्म में आप केवल सुख ही भोगेंगे, दुख का नामोनिशान नहीं रहेगा । अतः आज मैं आपको अपना भाग्य लिखने के लिए कलम आपके हाथ में देता हूँ । आप जैसा चाहें आज आप अपना भाग्य लिख लीजिए । ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा ।
(5) नासमझी : दुःख का कोई वजन नहीं है । दुःख का रंग नहीं है । दुःख का रूप नहीं है । दुःख की अपनी ताकत नहीं है । दुःख ईश्वर के पास भी नहीं है । दुःख हम चाहते भी नहीं हैं फिर भी हम दुःखी हैं। दुःख ईश्वर ने बनाया नहीं । दुःख प्रकृति ने बनाया नहीं। माँ बच्चे के लिए दुःख बनाती नहीं । फिर बच्चे दुःखी क्यों होते हैं? इसका सही जबाब है नासमझी से ।
जब भगवान हमारी उन्नति चाहते हैं, हमारे हितैषी हैं फिर भी दुःख है तो क्यों है? क्योंकि हम भगवान की हाँ में हाँ नहीं करते । हम अपनी बेवकूफी से भगवान को अपने ढंग से चलाना चाहते हैं ।
हम चाहते हैं कि - भगवान ऐसा कर दे, ऐसा हो जाय... सिनेमा में अच्छा महल, गाड़ियाँ,
बागीचे दिखते हैं। अब देखनेवाला बोले - ‘बस, यही दिखते रहें " क्या ऐसा संभव है ? नहीं । वे हटेंगे फिर सड़क दिखेगी, चोर भी दिखेंगे, डाकू भी दिखेंगे, अच्छे लोग भी दिखेंगे।
ये सारे सिनेमा के बदलते हुए दृश्य हैं। अब कोई यह बोले कि -"ये नहीं आयें, ऐसा ही हो, यह रुका रहे।" तो तुम्हारे कहने से रुकेगा नहीं, थमेगा नहीं और चाहो कि चला जाय तो जायेगा नहीं। यह तो फिल्म है तुम्हें खुश करने के लिए, आनंदित करने के लिए, सूझबूझ बढ़ाने के लिए । भगवान ने तो धर्मशास्त्र बनाये। ज्ञान का, भक्ति का, सत्कर्म का मार्ग बनाया । गुरुमंत्र पाने का सौभाग्य उपलब्ध किया ।
भगवान तो हमारा हित चाहते हैं। अब हम फिल्म देखें, छल-कपट करें, शराब पिएं, जुआ खेलें, दूसरे की निंदा करें तो हम ही तो दुःख बनाते हैं ।
दुःख का तो कोई रूप नहीं, दुःख का तो कोई रंग नहीं, दुःख का तो कोई वजन नहीं। बेवकूफी का नाम है दुःख। नासमझी का नाम है दुःख। दुराग्रह का नाम है दुःख।
इस जगत् में सब दुःख नासमझी के कारण ही है । दूसरा कोई भी दुःख है, वह सब नासमझी के कारण ही है । सब दुःख खुद का ही खड़ा किया हुआ है । नहीं दिखने के कारण जले तब कहें कि भाई, कैसे आप जल गए ? तब कहता है, 'भूल से जल गया ।
कोई जान-बूझकर जलूँगा?' ऐसे ये सारे दुःख भूल से हैं। सब दुःख अपनी भूल का परिणाम है। भूल चली जाएगी तो दुःख चला जाएगा।
(6) दुःखों का एक कारण ईश्वर कृपा: ईश्वर को जब किसी प्राणी पर दया करके उसे अपनी शरण में लेना होता है, कल्याण के पथ पर ले जाना होता है तो उसे भवबंधन से, कुप्रवृत्तियों से छुड़ाने के लिए ऐसे दुखदायक अवसर उत्पन्न करते हैं जिनकी ठोकर खाकर मनुष्य अपनी भूल को समझ जाए और उसका सच्चा भक्त बन जाए।
(7) कामना : कामना मनुष्य के दुख का कारण है । यदि किसी की कामना, इच्छा, वासना पूरी होती है तो सुख होता है और यदि इच्छा की पूर्ति में बाधा पड़ती है तब दुख होता है । इच्छा में बाधा लगने से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है और वही मनुष्य के पतन का कारण है।