गीता सार
शेष भाग ....अध्याय ३
कर्मयोग में सबसे महत्वपूर्ण बात है कर्म फल का त्याग करना । कर्मयोग में मनुष्य को चाहिए कि कर्म फल को परमेश्वर में अर्पित कर दे । लेकिन प्रश्न यह उठता है कि ऐसी अवस्था में क्या कर्म फल मनुष्य को फिर भी प्राप्त होता है, या नहीं ? गीता तीसरा अध्याय यह कहता है कि कर्मफल का त्याग कर देने पर क्या कर्म योगी को नुक्सान नहीं होता है ? परंतु विडम्बना यह है कि उसे पर्याप्त अर्थात अनंत मात्रा में उस फल की प्राप्ति होती है जिसमें वह शुभ - अशुभ कर्मफल से छूटकर परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।
यद्द्पि सांसारिक मनुष्य और कर्मयोगी दोनों में महान भेद देखने को मिलता है - सांसारिक मनुष्य कर्मफल को नहीं त्यागता है और कर्मयोगी कर्मफल को त्याग देता है। सांसारिक मनुष्य भी भोजन करता है, जल पीता है, सोता है और कर्मयोगी भी भोजन करता है, जल पीता है, सोता है लेकिन लेकिन दोनों का सोच (रवैया) भिन्न - भिन्न होता है। सबका सार यह है कि कर्मयोगी कर्मफल को त्यागने के करण अनंत समय के लिए पुरस्कृत होता है जिसमें वह परमेश्वर का दर्शन पता है, भगवतप्राप्तिरूप शांति को प्राप्त करता है किन्तु सांसारिक मनुष्य जन्म - मृत्यु के चक्र में फसकर चौरासी लाख योनियों में घूमता है। जिसने कर्मयोगी की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किये हुए अंतःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते । भगवान श्रीकृष्ण ने व्यर्थ विवाद करने वाले लोगों से कहा कि विवेकहीन और श्रद्धारहित मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।