कल्याण चाहने वाले मनुष्यों के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार का साधन मेरे द्वारा पहले से ही कही गई है । उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है । ज्ञानयोगियों के द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है वही यथार्थ देखता है । कर्मयोग के बिना ज्ञानयोग की सिद्धि संभव नहीं है परन्तु भगवत्स्वरूप को मनन करनेवाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त होजाता है । ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही परम कल्याण करने वाले हैं, परन्तु कर्मयोग साधन में सुगम होने के कारण ज्ञानयोग से श्रेष्ठ है ।
वास्तव में कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों के द्वारा प्रवस हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है । प्रत्येक मनुष्य धरती पर कार्य करते हैं, लेकिन वे उनका वह कार्य कर्म बंधन उत्पन्न करता है और वे अपने कर्मों के द्वारा कर्म बंधन में बन्ध जाते हैं । कुछ ही लोग ऐसे हैं जो कर्म तो करते हैं लेकिन वे कर्म बंधन में फसते नहीं तथा अपने आपको परमात्मा या पहिलौठा या अथाह प्रकाश समुद्र में मिलाये रखते हैं। दूसरे प्रकार के कर्मों का फल होने के कारण वे परमेश्वर के द्वारा असंख्य बार पुरस्कृत किए जाते हैं । आसक्ति रहित होने के कारण ही राजा जनक अपने वास्तविक स्वरुप को महशूस किए थे । इसलिए तुम निरन्तर आसक्ति से रहित होकर हमेशा कर्तव्यकर्म को भली भांति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि कर्म करने से पहले तुम कर्म के स्वरुप को जान लो फिर तुम कर्म करो । कर्म तीन प्रकार के होते हैं - (1) कर्म (2) अकर्म और (3) विकर्म । इसलिए कर्म का स्वरुप भी जानो, अकर्म का स्वरुप भी जानो तथा विकर्म का स्वरुप भी जानो क्योंकि कर्म की गति गहन है।
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखते हैं और अकर्म में कर्म देखते हैं, वह मुनष्यों में बुद्धिमान है ।
जिसके सम्पूर्ण शास्त्र सम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं ।
जो पुरुष समस्त कर्मो में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से सर्वथा रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भली भांति बरतता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि पुरस्कृत किए जाने वाले दूसरे प्रकार के कर्म क्या हैं और उसके फल का परिणाम क्या है यह भी जान लो ? तुम जो कर्म करते हो, जो कहते हो, जो हवन करते हो, जो दान देते हो,और जो तप करते हो वह सब मेरे अर्पण कर। ऐसा करने से तुम्हारे कर्मों के द्वारा जो शुभ अशुभ फल उत्पन्न होगा तुम उस कर्म बंधन से मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगे।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे भारतवंशी अर्जुन ! तू परमेश्वर को जानकर सभी कर्म ह्रदय से हमेशा परमेश्वर में अर्पित करके, ह्रदय में स्थित अज्ञानजनित संशय का विवेकरूपी तलवार द्वार छेदन करके तथा आसक्ति से रहित होकर कर्मयोग में लग जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा।