गीता सार
अध्याय - 4
गीता अध्याय 4 में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य ज्ञान दिया । वह दिव्य ज्ञान है - आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मिक ज्ञान, आत्मा तथा परमेश्वर के साथ सम्बन्ध, अपने आपको पवित्र करने और उद्धार पाने का ज्ञान। उन्होंने बताया कि इस ज्ञान का फल केवल उसी को मिलता है जो आसक्ति रहित कर्म करता है।
गीता अध्याय 4 में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अवतार लेने का रहस्य बताया, कर्म के पथ पर चल कर आत्म-पूर्णता का विज्ञान बताया, चार वर्णों के विभाजन के बारे में बताया, कर्तव्य कर्म के बारे में बताया, किसी और चीज का परम ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपाय बताया, अनंत शांति एवं अनंत आनंद प्राप्त करने का उपाय बताया ।
विस्तार से कर्म का स्वरुप बताया और कर्म पथ पर चलने का ज्ञान दिया जिसको कर्मयोग कहते हैं जिस कारण अर्जुन अपने संदेहात्मक बुद्धि से बहार निकल पाया ।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को साफ़ - साफ़ शब्दों में कहा कि कर्मयोगी कर्मफल को त्यागने के करण अनंत समय के लिए पुरस्कृत होता है जिसमें वह परमेश्वर का दर्शन पता है, भगवतप्राप्तिरूप शांति को प्राप्त करता है किन्तु सांसारिक मनुष्य जन्म - मृत्यु के चक्र में फसकर चौरासी लाख योनियों में घूमता है।
जिसने कर्मयोगी की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किये हुए अंतःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते । भगवान श्रीकृष्ण ने व्यर्थ विवाद करने वाले लोगों से कहा कि विवेकहीन और श्रद्धारहित मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता है कि "आप ज्ञान रूपी झरना का स्रोत- मुख हैं (MOUTH OF FOUNTAIN HEAD) और आप ही सभी बंधनों तथा सभी कामनाओं का भी स्रोत- मुख हैं। इसके बाबजूद भी आप इस संसार में जन्म क्यों लिए ?"
इन्होंने स्वीकार किया कि मैंने जन्म लिया है पर तुम्हारी तरह नहीं । तुम या मनुष्य पूर्व जन्म के कर्म के कारण जन्म लेते हो किन्तु मैं प्रकृति को अपने अधीन करके अपनी योग माया से अपने रूप को रचता हूँ और साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ।
उन्होंने साफ - साफ़ शब्दों में कहा कि - "मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरुप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ । जब - जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब - तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ । साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए मैं युग - युग में प्रकट हुआ करता हूँ । "
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि सर्व प्रथम शिष्य व् अनुयायी बनकर ज्ञान प्राप्त करो तब उन्होंने अर्जुन से अपने प्रकटीकरण तथा अपने उद्देश्य के बारे में बताया । इसके बाद उन्होंने यज्ञ एवं त्याग के बारे में बताया कि "यज्ञों के निम्मित किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दुसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है । इसलिए तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभांति कर्म कर।
गीता में कुल 12 प्रकार के यज्ञ का वर्णन किया गया है जिसके द्वारा मनुष्य जरुरत के सभी चीजों को प्राप्त कर सकता है लेकिन इसमें चार यज्ञ मुख्य हैं - (1) द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ (2) तपस्यरूप या ब्रह्म यग्य (3) योगरूप यज्ञ और (4) स्वाध्यायरूप ज्ञान यज्ञ । लेकिन द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ सबसे श्रेष्ठ है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि सब व्यक्ति यज्ञ नहीं कर सकते हैं । यज्ञ सम्पादन कौन कर सकता है ? जिस मनुष्य में कम से कम तीन गुण हो - 1. जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, 2. जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया हो तथा 3. जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को परमेश्वर से आत्मा के सम्बन्ध व् रिलेशनशिप के बारे में विस्तार पूर्वक बताया और कहा कि " उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभांति दंडवत-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्व को भलीभांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।"
अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देकर कहा कि तुम विवेक के द्वारा अपने समस्त संशयों का नाशकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।