गीता सार - अध्याय २ ( ईश्वर पुत्र अरुण )
जब भगवान श्री कृष्ण ने यह महशुस किया कि अर्जुन भौतिक आकर्षण के कारण युद्ध लड़ने से इन्कार कर रहा है तब दूसरे अध्याय में उन्होंने अर्जुन को सलाह दिया कि तुम मोह और अपने भावनात्मक कमजोरियों को छोड़ कर, ह्रदय के तुच्छ दुर्बलताओं को छोड़ कर युद्ध के मैदान में लड़ने के लिए तैयार हो जाओ ।
उन्होंने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म को याद दिलाते हुए कहा कि "क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ।" उन्होंने अर्जुन को चेतावनी देते हुए कहा कि अपने - आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं । किन्तु यदि तुम इस धर्म युद्ध को नहीं लड़ेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ।
तू जिनकी दृष्टि में पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे । तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य कि निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे ; उससे और अधिक दुःख क्या होगा ? या तो तू युद्ध में मर कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम को जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ।
जय - पराजय, लाभ - हानि और सुख - दुःख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा ।
इतना सुनने के बाद अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वाभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित ही कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिए मुझे शिक्षा दीजिये ।
प्रत्येक जीवित प्राणी इस संसार में रहकर संसार के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है लेकिन यहाँ भागवान श्री कृष्ण सांसारिक ज्ञान की बात नहीं करते हैं बल्कि वे ईश्वरीय ज्ञान और सत्य, नाशवान शरीर और अविनाशी आत्मा की बात करते हैं । वे यह बताते हैं कि एक मनुष्य को धर्म एवं कर्तव्य को किस प्रकार निभाना चाहिए ।
भागवान श्रीकृष्ण ने कहा कि जो जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है परन्तु आत्मा न तो जन्म लेता है और न मरता है । तो उदास होने की क्या बात है ?
यदि तुम स्वाभाविक कर्म नहीं करते हो, अपने स्वधर्म का पालन नहीं करते हो और क्षत्रिय धर्म के अनुसार धर्म युद्ध नहीं लड़ते हो तब अपयश तुम्हारे दरबाजे पर होगी जो मृत्यु से भी अत्यंत बुरा होगा।
इसलिए प्रत्येक मनुष्य को नाशरहित नित्यस्वरूप अविनाशी आत्मा को जानना चाहिए और अपना स्वाभाविक कर्म भी करना चाहिए । जो व्यक्ति ईमानदारी एवं निष्ठा से अपना कर्तव्य कर्म करता है वह कर्म फल में नहीं बंधता है। भागवान श्रीकृष्ण ने कहा कि मनुष्य कर्तव्य कर्म करे लेकिन फल की आशा छोड़कर अपना कर्तव्य कर्म करे। कर्म फल में कोई आशक्ति नहीं हो और इसके लिए मनुष्य समत्वरूप योग में लगा रहे; क्योंकि समत्वरूप योग ही कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है।
समत्वरूप योग या समत्वरूप बुद्धियोग से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्मरूप बन्धन से मुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं । इसको प्राप्त होकर मनुष्य कभी भी मोहित नहीं होता । यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है ,जो अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होजाता है वह ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।
(शेष भाग ........कल्ह)
(शेष भाग ........कल्ह)