एक साधक के लिए गुरु भगवान का रूप है। गुरु की शक्ति सीमित नहीं है। यह शक्ति अनंत है, अखंड है। ऋषियों ने कहा है कि गुरु की छवि वह मूल है जहां से ध्यान आता है, साधक के द्वारा की गई पूजा अथवा किसी भी प्रकार का तप गुरु के चरण कमल से आते हैं, मंत्र का मूल गुरु के द्वारा कहे गए शब्द हैं और मोक्ष का मूल केवल गुरु की कृपा ही है।वैदिक ज्ञान के अनुसार गुरुशक्ति को सर्वोच्च स्थान और आदर दिया गया है। गुरु का अस्तित्व भौतिक शरीर तक ही सिमित नहीं है, बल्कि वह एक शक्ति है जिसे दिव्य चेतना परब्रह्म से भी उच्च माना गया है।
गुरु कृपा का मतलब यह हर्गिज नहीं है कि यह आपकी तुच्छ योजनाएं और इच्छा पूरी करता रहे क्योंकि आपकी योजनाएं लगातार बदलती रहती हैं। गुरु कृपा का अर्थ यह नहीं कि आपके जीवन में दुःख नहीं आए। गुरु कृपा का अर्थ यह है कि दुःख में भी आप दुखी न हो। दुःख भरा वह समय कब बीत जाय आपको पता न चले यही गुरु कृपा है।
आप अपने जीवन के विभिन्न स्तरों पर सोचते हैं कि ‘यह होना चाहिए’, लेकिन अगले ही पल आप अपने निर्णय या इच्छाओं को बदल देते हैं। आप छुट्टी पर जाना चाहते हैं तो आप कहते हैं- "सद्गुरु, आप इसमें मेरी मदद क्यों नहीं करते ?" आए दिन आप यह सवाल मत कीजिए कि "मुझ पर कृपा है या नहीं ? " गुरु की कृपा आपकी योजनाओं को पूरा करने के लिए नहीं होती, बल्कि यह आपके जीवन की योजना को पूरा करने के लिए होती है। यह आपको जीवन का एक हिस्सा बनाने के लिए होती है, इसे अपनी पूर्णता पर पहुंचने दीजिए।जिस क्षण आप गुरु के सानिध्य में बैठते हैं, विशेषकर जैसे ही आप मुझसे दीक्षित होते हैं तो उसके बाद कृपा न होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। उसके बाद गुरु कृपा तो हर समय आपके साथ होती है। बात सिर्फ इतनी है कि आप कृपा की उम्मीद अपनी योजनाओं और इच्छाओं को पूरी करने के लिए लगाए बैठे हैं। यह मंदिर या चर्च जाने की वही पुरानी आदत है, जहां आप ईश्वर को यह बताते हैं कि उसे आपके लिए क्या करना चाहिए। अगर वह आपकी इच्छा पूरी नहीं करता तो आप ईश्वर बदल देते हैं। ठीक उसी प्रकार अगर गुरु बनाने से आपकी इच्छा पूरी नहीं होती है तो आप भी गुरु बदल देते हैं। यही अपराध आप बार - बार दुहराते हैं - ईश्वर पुत्र अरुण