(1)
कोई मुझे तर्क द्वारा नहीं समझ सकता, भले वो
युगों - युगों तक तर्क करता क्यों न रहे ?
(2)
प्रभु से प्रेम करो, प्रभु के नाम की सेवा करो और उसके सेवकों के सेवक बन जाओ ।
(3)
जिसमे ईश्वर का प्रेम भरा हो समझो कि उसका जन्म नहीं हुआ है। जब उसका जन्म ही नहीं हुआ है तो उसकी मृत्यु
कैसे हो सकती है ?
(4)
आप जितनी बार ईश्वर से प्रार्थना करेंगे, उतनी ही ज़्यादा उसके साथ आपकी दोस्ती पक्की
होती जाएगी।
(5)
आज लोग ईश्वर का नाम अवश्य लेते हैं, उसकी पूजा भी करते हैं, परन्तु बड़ी दुःख की बात
है कि उसे पहचानते बहुत कम लोग हैं।
(6)
ईश्वर समस्त सृष्टि का अकेला स्रष्टा, पालनहार और शासक हैं। उसी ने पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा,
सूर्य, सितारे और पृथ्वी पर रहने वाले सारे इंसानों एवं प्रत्येक जीव-जन्तुओं को पैदा
किया। उसे न तो खाने-पीने और सोने की आवश्यकता पड़ती है, है और न ही उसका
कोई साझी ही है। किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है। उससे भिन्न दूसरा कोई भी नहीं है। वह अपने
काम में किसी की भी सहायता नहीं लेता, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है। यजुर्वेद 32/3 में
इस प्रकार कहा गया है —
"
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महदयश " अर्थात जिस प्रभु का बड़ा प्रसिद्ध यश है
उसकी कोई प्रतिमा नहीं।
(7)
मेरी बात ध्यान से सुनो ! तुम जिन पूज्य ईश्वर को छोड़कर अन्य - अन्य को ईश्वर मान कर
पुकारते हो, वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते। बल्कि
यदि मक्खी उनसे कोई चीज छीन ले जाए तो वे उसे
छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहने वाले भी कमजोर और जिनसे मदद की आशा की जाती है वह भी कमजोर
है। इन लोगों ने ईश्वर की कद्र ही नहीं की और न उनके स्तित्व को ही पहचान पाया, जैसा कि उसके
पहचानने का हक है।
(8)
आरंभ से मानव का धर्म केवल एक ही रहा है, परन्तु
लोगों ने अपने-अपने गुरुओं के नाम से अलग-अलग धर्म बना लिया और विभिन्न धर्मों में
विभाजित हो गए। आज हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हम अपने वास्तविक ईश्वर की ओर
वापस मुड़ें, जिसका संबंध किसी विशेष देश, जाति, आमिर - गरीब या वंश से नहीं, बल्कि वह सम्पूर्ण संसार का स्रष्टा,
आनन्दाता और पालनकर्ता है। ईश्वर ही ने हम सबको पैदा किया, वही हमारा पालन-पोषण कर
रहा है, तो स्वाभाविक तौर पर हमें केवल उसकी ही पूजा करनी चाहिए । इसी तथ्य का समर्थन
प्रत्येक धार्मिक ग्रंथों ने भी किया है। इस्लाम भी यही आदेश देता है कि मात्र एक ईश्वर
की ही पूजा की जाए। इस्लाम की दृष्टि में स्वयं ईश्वर को छोड़ कर अन्य - अन्य को ईश्वर
मान कर उनकी पूजा करना अथवा आध्यात्मिक चिंतन
के बहाने किसी चित्र का सहारा लेना महापाप है।