सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने सबसे पहले आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की। पृथ्वी बेडोल और सुनसान पड़ी थी और गहरे जल के ऊपर अँधियारा था तथा परमेश्वर का आत्मा जल के ऊपर मंडराता था। तब परमेश्वर ने कहा उजियाला हो, तो उजियाला हो गया। परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है और परमेश्वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया। परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया।
फिर परमेश्वर ने कहा कि जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो की जल दो भाग हो जाय। तब परमेश्वर ने एक अंतर करके उसके निचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग - अलग किया और वैसा ही हो गया। परमेश्वर ने उस अन्तर को आकाश कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार दूसरा दिन हो गया।
फिर परमेश्वर ने कहा आकाश के निचे का जल एक स्थान में इकठ्ठा हो जाय और सुखी भूमि दिखाई दे और वैसा ही हो गया। परमेश्वर ने सुखी भूमि को पृथ्वी और जो जल इकट्ठा हुआ उसको समुद्र कहा। परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्वर ने कहा पृथ्वी से हरी घास तथा बीज वाले छोटे - छोटे पेड़ और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक - एक की जाती के अनुसार होते हैं पृथ्वी पर उगे और ऐसा ही हो गया। परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार तीसरा दिन हो गया।
फिर परमेश्वर ने कहा दिन को रात से अलग करने के लिए आकाश के अंतर में ज्योतियाँ हो और वे चिन्हों, नियत समयों, दिनों और वर्षों के कारण हों। और वे ज्योतियाँ आकाश के अंतर में पृथ्वी पर प्रकाश देने वाली भी ठहरें और वैसा ही हो गया। तब परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियां बनाई, उनमें से बड़ी ज्योति दिन पर प्रभुता करने के लिए और छोटी ज्योति को रात पर प्रभुता करने के लिए बनाया और तारागण को भी बनाया। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार चौथा दिन हो गया।
फिर परमेश्वर ने कहा जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाय और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश तक के अंतर में उड़े। परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पांचवां दिन हो गया। फिर परमेश्वर ने पृथ्वी से एक - एक जाति के जीवित प्राणी अर्थात घरेलू पशु, रेंगने वाले जंतु और पृथ्वी के वन पशु जाति - जाति के अनुसार उतपन्न हो और वैसा हो गया। और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्वर ने कहा हम मनुष्य को अपने स्वरुप के अनुसार अपनी समानता में बनाएँगे और वे समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षिओं , घरेलु पशुओं और सारी पृथ्वी पर सब रेंगने वाली जंतुओं पर अधिकार रखे। तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरुप के अनुसार उतपन्न किया, नर और नारी करके उसने मनुष्यों की सृष्टि की। और परमेश्वर ने उनको आशीष दी और उनसे कहा फूलो - फलो और पृथ्वी में भर जाओ। फिर परमेश्वर ने उनसे कहा सुनो - जितने बीज वाले छोटे - छोटे पेड़ सारी पृथ्वी के ऊपर हैं और जितने वृक्षों में बीज वाले फल होते हैं उन सबको तुमको भोजन के लिए दिए हैं। इस प्रकार मनुष्य शाकाहारी भोजन करने लगा। परमेश्वर ने जो कुछ बनाया था सब को देखा की वह बहुत ही अच्छा है। तब साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार छठा दिन हो गया।
सातवें दिन परमेश्वर ने सृष्टि के सब कामों से फ्री होकर विश्राम किया और सबको आशीष दिया। (धर्मशास्त्र, उत्पत्ति १:३१) इस प्रकार सृष्टि रचना के क्रम में परमेश्वर सबसे अंत में मनुष्य को बनाया और मनुष्य परमेश्वर के कहने पर शाकाहारी भोजन करने लगा।
कुछ समय बीतने के बाद परमेश्वर ने क्या देखा कि सभी मनुष्यों ने अपना - अपना चाल चलन बिगार लिया है।मनुष्य की बुराई पृथ्वी पर बढ़ गई है और उनके मन के विचार में जो कुछ उतपन्न होते हैं वह निरंतर ही बुरा होता है। तब परमेश्वर ने पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने पछताया और उन्होंने फैसला किया कि मैं मनुष्य को जिसकी मैंने सृष्टि की है पृथ्वी के ऊपर से मिटा दूंगा; क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या रेंगने वाले जंतु, क्या आकाश के पक्षी सबको मैं मिटा दूंगा। (धर्मशास्त्र, उत्पत्ति ६:५-७) तब परमेश्वर ने पृथ्वी पर विनाशकारी जल प्रलय लाया।
परमेश्वर की योजना में यह विनाशकारी जल प्रलय ४० दिन और ४० रात तक होता रहा। (धर्मशास्त्र, उत्पत्ति ७:१७) परमेश्वर की नजर में नूह धर्मी और खरा पुरुष था। (धर्मशास्त्र, उत्पत्ति ६:९) इसलिए परमेश्वर ने नूह को जहाज में बैठाया और उसमें नूह की पत्नी, नूह के पुत्र, और तीन बहुओं समेत सब जाति के पशु, पक्षी, रेंगने वाली जंतु में से दो - दो अर्थात एक नर और एक मादा, सब जाति के शुद्ध पशुओं में से सात - सात अर्थात सात नर और सात मादा और जो शुद्ध नहीं हैं उनमें से दो नर और दो मादा तथा जितने प्राणी नूह के संघ थे उसको बैठाया और उन्हें बचा लिया । (धर्मशास्त्र, उत्पत्ति ६:१९ -२२; ७:१-३ और ९:१२) इस प्रकार विनाशकारी जल प्रलय में जहाज / नाव के द्वारा बचने वाले लोगों की कुल संख्या ८८००० थी ।
(भविष्य पुराण, प्रति सर्ग पर्व, प्रथम खंड, अध्याय ४-५)
जब जल प्रलय ख़त्म हुआ तब पृथ्वी पर खाने के लिए कुछ भी नहीं था। जल प्रलय में सब पेड़ - पौधे जल में डूब कर नष्ट हो चुके थे। मनुष्य के लिए भोजन सबसे बड़ी समस्याबन गई और भोजन के बिना सब मर जाते। तब परमेश्वर ने कहा - सब चलने वाले जंतु तुम्हारा आहार होंगे। जिस प्रकार मैंने तुमको खाने के लिए हरे - हरे छोटे पेड़ दिया था वैसे ही खाने के लिए अब मैं तुमको सब चलने वाले जंतु देता हूँ। (धर्मशास्त्र, उत्पत्ति ९:३-४) परमेश्वर के कहने पर ही जल प्रलय के बाद मनुष्य मंसाहारी भोजन करने लगे।
इस प्रकार परमेश्वर के कहने पर ही मनुष्य मंसाहारी हो गया ।