आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 34
(आदिश्री अरुण)
आदिश्री अरुण की 20 बातों को जो भी मनुष्य अपना लेता है वह सब दुखों से छुटकारा पाकर इसी शरीर में बिना मरे, विदाउट डेथ, जीवित अवस्था में ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । वह 20 बातें निम्नलिखित हैं :-
(1) आनंद अपने भीतर ही निवास करता है किन्तु मनुष्य उसको घर में तथा बाहरी स्थानों पर खोज रहा है।
(2) भगवान की वन्दना केवल शरीर से ही नहीं बल्कि मन से भी कीजिए। वन्दना भगवान को प्रेम बन्धन में बाँधता है।
(3) कामना ही पुनर्जन्म का कारण होता है ।
(4) इन्द्रियों के आधीन होने से मनुष्य के जीवन में विकार आता है ।
(5) सयंम, सदाचार, स्नेह एवं सेवा - यह गुण सत्संग के बिना नहीं आते ।
(6) वस्त्र बदलने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है ह्रदय परिवर्तन की ।
(7) जवानी में जिसने ज्यादा पाप किए हैं उसे बुढ़ापे में नींद नहीं आती ।
(8) भगवान ने जिसे सम्पत्ति दी है उसको ईश्वर के भवन में दान और धर्म कार्य में अवश्य ही खर्च करना चाहिए ।
(9) जूआ, मदिरापान, हिंसा, असत्य, कामना, आसक्ति, निर्दयता, तथा क्रोध सब में कलि (शैतान) का वास है।
(10) अधिकारी शिष्य को सद्गुरु अवश्य ही मिलता है ।
(11) मन को बार - बार समझाओ कि ईश्वर के सिवा मेरा कोई नहीं है, विचार करो कि मेरा कोई नहीं है और मैं ईश्वर को छोड़ किसी का नहीं हूँ ।
(12) भोग में क्षणिक सुख है और त्याग में स्थाई आनंद है ।
(13) सत्संग ईश्वर कृपा से मिलता है परन्तु कुसंगत में पड़ना तुम्हारे हाथ में है ।
(14) लोभ और ममता पाप के माता - पिता हैं । कामना पाप का बाप है । अब सबाल यह उठता है कि कामना कैसे जन्म लेती है ? विषयों का चिन्तन करने से उस विषयों में आसक्ति हो जाती है । आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध से मूढ़ भाव उत्पन्न होता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से वह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है अर्थात उसका पतन हो जाता है।
(15) ईश्वर को तत्व से जान लेने मात्र से ही उसे ईश्वर तत्काल ही प्राप्त हो जाते हैं ।
(16) मन एवं बुद्धि पर विश्वास मत करो । ये मनुष्य को बार - बार दगा देते हैं ।
(17) ईश्वर में मन को लगा और ईश्वर में ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू ईश्वर को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।
(18) भगवान मनुष्य को सब कसौटियों पर कस कर तथा जाँच - परख कर ही अपनाते हैं ।
(19) ब्रह्म विद्द्या ही मुक्ति का एक मात्र उपाय है (एक मात्र मार्ग है), यह कोई कर्म नहीं । जिस प्रकार यज्ञ का फल स्वर्ग की प्राप्ति है , ठीक उसी प्रकार ब्रह्म बिद्द्या (ब्रह्म ज्ञान) का फल मुक्ति की प्राप्ति है ।
(20) कामना रहित, निष्काम भाव से ईश्वर को चाहने वाला व्यक्ति का प्राण ऊपर के लोकों में नहीं जाते बल्कि वह बिना मरे, विदाउट डेथ, इसी शरीर में यहीं ब्रह्म होकर ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है अर्थात मुक्ति को प्राप्त हो जाता है ।