आदिश्री अरुण का महा उपदेश भाग - 32
(आदिश्री अरुण)
सम्बन्ध या
रिश्तेदारी आध्यात्मिक उन्नति में सबसे बड़ा बाधक है /
Relations are major restrictions in
spiritual development. हे मनुष्य ! तुमने कहा कि मेरे पिता की मृत्यु हो गई । आज तुम अपने पिता के लिए भावुक हो गए तथा उनकी याद में तुम रोने लगे । ऐसा तुम इसलिए कर रहे हो क्योंकि तुम्हारा पिता - पुत्र का नाता अभी तक समाप्त नहीं हुआ ।
आज तुम अपने पिता के लिए भावुक हो गए और उनकी याद में तुम रोने लगे - वास्तव में तुम्हारा यह रिस्ता भ्रम है । मनुष्य का शरीर एक यंत्र है । ईश्वर ने इस यंत्र को अपने लिए बनाया है । भगवान् को अपना काम करना था इसलिए उन्होंने मनुष्य को बनाया । भगवान को दिव्य कर्म करने थे इसलिए उनको हाथ
चाहिए था इसलिए उन्होंने मनुष्य के लिए हाथ बनाया । भगवान को इस संसार को देखना था इसलिए उन्होंने मनुष्य के लिए आँख बनाया । भगवान को इस धरती को ज्ञान देना था इसलिए भगवान ने अपना ज्ञान देने के लिए मनुष्य के लिए दिमाग
बनाया ।
काम करना तो भगवान को था इसलिए इस काम के लिए भगवान ने
मनुष्य को यन्त्र के रुप में निर्माण किया और उसके अन्दर बैठ कर उस यंत्र को भ्रमण करता हुआ सब प्राणियों के ह्रदय में स्थित हो गया । गीता
18 अध्याय का
61 श्लोक में
भगवान ने कहा कि
" हे अर्जुन ! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करता हुआ सब प्राणियों के ह्रदय में स्थित है । " अब एक यंत्र यह भूल जाय कि मैं एक यंत्र हूँ और यह केवल भगवान के लिए बना है और स्वंयम भोग भोगने लगे तथा दूसरे यंत्र का रिश्तेदार बन जाय और भगवन को ही भूल जाय तो यह क्या न्याय संगत है ?
तुम जो पिता - पुत्र का रिस्ता अभी तक बनाए हुए हो यह तुम्हारा अज्ञान है । केवल तुम्हारे मन में अभी तक वह रिश्ता जीवित है क्योंकि तुम अभी तक उसी जन्म में हो । परन्तु तुम्हारे पिता इस समय जिस योनि में हो रिश्ता
समाप्त हो
चुका है। पिता की बात छोड़ो, तुम अपनी बात करो । पीछले जन्म में जब
तुम्हारी मृत्यु हुई होगी तो तुम्हारे सब रिस्तेदार सम्बन्धी रोए होंगे। तुम्हारी पत्नी और तुम्हारा पुत्र बहुत विलाप किया होगा । परन्तु आज इस जन्म में तुम्हें याद भी नहीं किस - किस ने तुम्हारे मृत्यु पर विलाप किया था । आज तुम्हारे लिए उनका रोने - धोने का कोई मोल नहीं । इसलिए मैं तुमको समझा रहा हूँ कि न किसी के मरने का शोक करो, न किसी के साथ नाता टूटने का दुःख मानो ।
वैसे भी मेरी माया इतनी प्रबल है कि जिसके लिए तुम यह समझता है कि तेरी मृत्यु के बाद शोक करेंगे , सारा जीवन रोते रहेंगे वो भी असत्य है । मेरी माया के प्रभाव से थोड़े
ही दिनों के बाद उन रोने वालों को तू फिर हँसता - खेलता देखोगे ।
मित्र चार दिन रोता है, भाई दस
दिन रोता है, पत्नी उससे अधिक रोती है और माता सबसे अधिक समय तक रोती है । परन्तु सबके आंशू धीरे - धीरे सूख जाते हैं और उन आँखों में फिर से नए - नए सपनों कि रोशनी चमकाने लगाती है ।
हे मनुष्य ! क्या तुम बता सकते
हो कि पीछले जन्म में तुम्हारे
किस रिश्तेदार ने तुम्हारे लिए कितना विलाप
किया था ? तुम्हें तो यह भी याद नहीं कि तुम्हारे रिश्तेदार कौन थे ? हे मनुष्य ! जिस
तरह तुम पीछले जन्म को भूल गए हो उसी तरह तुम अपने इस जन्म को भी भूल जाओगे। इस जन्म
के रिश्तों का अर्थ तुम्हारे आने वाले जन्म में कुछ भी नहीं रह जाएगा । आज जिसको तुम
अपना पुत्र समझ रहे हो होसकता है कि पीछले जन्म में वह तुम्हारा पिता रहा हो या आने वाले जन्म में तुम्हारा माहा शत्रु बन जाय
। आज तुम जिनको अपना रिश्तेदार समझ रहे हो,
जिन्हें आदरणीय समझ रहे हो और जिस कारण उन्हें कुछ कहने में संकोच कर रहे हो होसकता
है उन्हीं में से तुम्हारे पीछले जन्म में किसी ने तुम्हारी ह्त्या की हो । या फिर तुम अगले जन्म में उनकी ह्त्या कर दो । हे मनुष्य ! ये रिश्ते शरीर के जन्म के साथ पैदा होते हैं और शरीर के मृत्यु
के साथ मर जाते हैं । इसलिए इन रिश्ते - नाते के चक्रव्यूह से तुम बाहर आ जाओ । आत्मा
अमर है और इस अमर तत्व को पहचानो । रिश्ते तो शरीर के जन्म लेने के साथ बदलते रहते हैं । इसलिए जाने वालों के लिए शोक मत करो ।