Maha - Upadesh of Aadishri; Part - 1 / आदिश्री के महा उपदेश; भाग - 1

आदिश्री के पाँच महा उपदेश

(आदिश्री अरुण

5 Maha - Teaching of Aadishri / आदिश्री  के 5 महा उपदेश


*1.  एक दूसरे को चाहने वाले लोग एक दूसरे को उपहार देते हैं । लेकिन एक उपहार तभी अच्छा और पवित्र लगता है जब वह दिल से और प्रेम से  किसी सही व्यक्ति को सही समय और सही जगह पर दिया जाय । इतना ही नहीं  बल्कि उपहार देने वाले व्यक्ति का दिल उस उपहार के बदले कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखता हो । अर्थात दिया गया उपहार में निष्काम भाव की ही प्रधानता होनी चाहिए । 

*2. ईश्वर केवल उसी उपहार को सगुण रूप से प्रकट होकर ग्रहण करते हैं जो निष्काम भाव से प्रेम पूर्वक अर्पण किया गया है । साफ - साफ लब्जों  में मेरा यह कहना है  कि " जो कोई भक्त ईश्वर के  लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, आदि अर्पण करता है, तो उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र - पुष्पादि ईश्वर सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाते हैं । " 

*3. मन अशांत है और उसको नियंत्रित करना कठिन है; लेकिन अभ्यास से इसको वश में किया जा सकता  है । मैं मानता हूँ कि मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वाभाव वाला, बड़ा ढृढ़ और बलवान है । इसलिए उसको वश में करना वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर है ।  लेकिन जो प्राणी अपने मन को नियंत्रित नहीं करता उनके लिए वह शत्रु के सामान कार्य करता है। साफ - साफ लब्जों  में मेरा यह कहना है  कि "न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मकता  बुद्धि नहीं होती और उस अयोग्य  मनुष्य के अन्तःकरण  में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ? "  यानिकि जिसकी भावना  ईश्वरभावनामृत ईश्वर से सम्बन्धित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है । शान्ति के बिना सुख भी मिल कैसे सकता है

*4. जिस काल में मनुष्य अपने मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, केवल उसी काल में वह ईश्वर में स्थित होता है अर्थात वह प्राणी स्थितिप्रज्ञ कहा जाता है । जब प्राणी ईश्वर में स्थित हो जाएगा अर्थात स्थितिप्रज्ञ हो जाएगा तब ईश्वर से उसका  नित्य संयोग हो जाएगा ।   

*5. मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है । जैसा वह विश्वास करता है वैसा बन जाता है । इसलिए मैं यह कहता हूँ कि भाँति - भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब ईश्वर में अचल और स्थिर ठहर जाएगी तब तेरा ईश्वर से नित्य संयोग हो जाएगा । विश्वास तो  भक्ति का बीज है। जिस प्रकार बिना बीज का पेड़ नहीं उग सकता ठीक उसी प्रकार बिना विश्वास का भक्ति का उदय नहीं हो सकता । विश्वास रूपी बीज से ही भक्ति का पेड़ उगता है और भक्ति के पेड़  में ही ज्ञान का फूल लगता है । मनुष्य ज्ञान के फूल को पाकर ईश्वर की खोज करता है और जो ईश्वर को खोजता है वह ईश्वर को प्राप्त कर लेता  है ।     

                                  

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