ईश्वर का प्रिय भक्त बनने के लिए क्या हों ऐसा 5 क्वालिटी ?
ईश्वर पुत्र अरुण
ईश्वर का प्रिय भक्त बनने के लिए क्या हों
ऐसा 5 क्वालिटी ?
ईश्वर का प्रिय भक्त बनने के लिए निम्न लिखित 5 क्वालिटी होना चाहिए :
(1) ईश्वर ने कहा कि जिस व्यक्ति से कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देख कर संताप करे उसे अमर्ष कहते हैं), भय और उद्वेगादि से रहित है - वह भक्त मुझे प्रिय है। (गीता 12 :15)
(2) ईश्वर ने कहा कि जो व्यक्ति आकांक्षा से रहित, बहार-भीतर से शुद्ध (सत्यता
पूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य वर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहरी शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतरी शुद्धि कही जाती है - गीता 13 :7), चतुर, पक्षपात से रहित और दुखों से छूट हुआ है - वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है । (गीता 12 :16)
(3) ईश्वर ने कहा कि जो व्यक्ति न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है - वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है । (गीता 12 :17)
(4) ईश्वर ने कहा कि जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है।जो निंदा-स्तुति को समान समझनेवाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है - वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है। (गीता 12 :18 -19)
(5) ईश्वर ने कहा कि जो परमेश्वर ने कहा कि जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित, सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालू है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है; तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है - वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है। (गीता 12 : 13 -14 ) परन्तु जो
श्रद्धायुक्त पुरुष (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्येक्ष के सदृश विश्वास का नाम श्रद्धा है) मेरे परायण होकर ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं ।(गीता 12 : 20)