मानव
समाज के पास तीन प्रकार का बल होता है - (1) मनुष्य बल, (2) धन बल और तीसरा (3) मनोबल। जरा आप सोचिए कि इन तीनों बलों में से आपके पास कौन सा बल है?
(1) मनुष्य बल: मनुष्य बल की दृष्टि से आप अल्पयंख्यक ही नहीं बल्कि संगठित भी नहीं हैं। आप में इतना भी योगयता नहीं है कि आप इकट्ठा होकर दुःख - सुख में एक साथ रह सकें।
(2) धन बल: धन बल की दृष्टि से देखा जाए तो आपके पास धन बल तो कुछ भी नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश की कुल आबादी की 55% जनसंख्या आज भी गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन बिता रही है जिसका 90% दलित वर्ग के लोग ही हैं।
(3) मनोबल: मानसिक बल की तो उससे भी बहुत बुरी हालत है। आप लोगों का आत्म विश्वास, उत्साह और महत्वकांक्षी होना - इस चेतना का तो जड़ - मूल से सफाया हो चूका है। आप भी कुछ कर सकते हैं इस तरह का विचार तो किसी के मन में आता ही नहीं है।
यदि मनुष्य के पास जन बल और धन बल ये दोनों हों भी और मनोबल न हो तो ये दोनों बल बेकार साबित हो जाते हैं। मान लीजिए आप के पास पैसा भी खूब हो और आदमी भी काफी हों, आपके पास बन्दूकें और अन्य सुरक्षा सामग्री भी उप्लब्ध हो लेकिन आपके पास मनोबल न हो तो आने वाला शत्रु आपकी बन्दूकें और सुरक्षा सामग्री भी छीन ले जाएगा। अतः मनोबल का होना परम आवश्यक है। मनोबल किसी पेड़ में नहीं फलते हैं । यह तभी सम्भव है जब आप यह सोचें कि शरीर एक बर्तन है और आत्मा इस बर्तन में निवास करता है। आत्मा ईश्वर का एक अंश है जो अविनाशी है । इसमें इतनी शक्ति है कि एक ब्रह्माण्ड की रचना कर देगा। परमेश्वर की ओर सही दिशा में चल कर देवों जैसा शक्ति प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए आत्मा को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है। यह तभी संभव हो सकता है जब आप यह जानें कि आप कौन हैं ? आपको जाना कहाँ है ? और आपको किसके आश्रय में रहना है ? यह सत्य जान लीजिए कि परमेश्वर के जैसा सहारा देने वाला कोई दुसरा नहीं है। जो परमेश्वर के शरण में चला जाता है उसकी सुरक्षा करना परमेश्वर का निज धर्म हो जाता है - आदिश्री अरुण