ध्यान ही परम धर्म है, ध्यान ही परम शुद्धि है। इसलिए मनुष्य को ध्यान परायण होना चाहिए। प्रति दिन ध्यान करने से जो लाभ प्राप्त होते हैं वे निम्नलिखित हैं :-
(१) ध्यान करने वाले मनुष्य के प्राण वायु की दिशा ऊर्ध्व अर्थात ऊपर की ओर हो जाती है जिससे मृत्यु के समय जीव को शरीर का त्याग करते समय कोई कष्ट नहीं होता है। सामान्य मनुष्य को मृत्यु के समय शरीर का त्याग करते वक्त इतनी पीड़ा होती है जैसे हजार बिच्छु एक साथ डंक मार दिए हों।
(२) इस लोक में और परलोक में मनुष्य के लिए जो कुछ दुर्लभ है, जो मन से सोचा भी नहीं जासकता है, वह सब बिना मांगे ही ध्यान करने वालों को मिल जाता है।
(३) पाप करने वालों की शुद्धिकरण हेतु ध्यान के समान कोई और अन्य दूसरा साधन नहीं है।
(४) ध्यान पुनर्जन्म देने वाले कारणों को भष्म करने वाली योगाग्नि है।
(५) दुःख - सागर को पार करने के लिए ध्यान ही सर्वोत्तम साधन है। इससे अच्छा साधन कुच्छ भी नहीं है।
(६ ) जिस प्रकार वायु के सहयोग से ऊँचे उठने वाली ज्वाला से युक्त अपने आश्रय कमरे को जलाकर भष्म कर देती है, ठीक उसी प्रकार ध्यान करने वाले मनुष्य के समस्त पाप को ध्यान नष्ट कर देता है।
(७) जिस प्रकार अग्नि के संयोग से सोना मल रहित हो जाता है, ठीक उसी प्रकार ध्यान करने से मनुष्य के प्राण वायु ध्यान के प्रभाव से ऊर्ध्व अर्थात ऊपर की ओर हो जाती है जो अग्नि के समान मनुष्य के सारे पाप एवं कर्मों को जला कर निर्मल कर देती है।
(८) जो व्यक्ति प्रति दिन ध्यान करता है, उसका बराबरी न तो नाना प्रकार का दान कर सकता है, न छियासठ हजार (६६०००) विभिन्न तीर्थों का परिभ्रमण करने से मिल सकता है, न तपस्या और यज्ञों का सम्पादन करने से मिल सकता है और न प्रायश्चित करने वाले तप - कर्म से मिल सकता है। ध्यान की तुलना में इन सबका कोई महत्व नहीं है।
(९ ) जो मनुष्य एक मुहूर्त भर भी निरालस्य (आलस्य को त्याग कर) ध्यान कर लेता है तो वह स्वर्ग को प्राप्त करता है। फिर जो भगवान नारायण के परायण होकर, अनन्य प्रेम एवं भक्ति से ध्यान करता है तो इससे अच्छा कुछ भी नहीं है।
(१० ) सभी शास्त्रों का अवलोकन करके तथा पुनः - पुनः विचार करके यही एक निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को हमेशा भगवान नारायण का ही ध्यान करना चाहिए।
(11) जिस मनुष्य की अनुरक्ति हमेशा पाप कर्म में ही होती है उसके लिए भगवान नारायण का ध्यान ही एक मात्र परम औषधि है।
(१२) हजारों बार गंगा स्नान तथा करोंडो बार पुष्कर नामक तीर्थ में स्नान करने से जो पाप नष्ट होता है वह पाप केवल भगवान नारायण का एक मुहूर्त अर्थात क्षण भर ध्यान कर लेने मात्र से ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भगवान नारायण के ध्यान से बढ़ कर कोई अन्य चीज नहीं है।
(१३) इस संसार में ध्यान के समान कोई अन्य पवित्र कार्य नहीं है।
(१४) जिस प्रकार चारों ओर से लगी हुई अग्नि की ज्वाला से घिरे हुए पर्वत का आश्रय मृग आदि पशु एवं पक्षी नहीं लेते ठीक उसी प्रकार योगाभ्यास व ध्यान में लगे हुए मनुष्य का आश्रय पाप कभी भी नहीं लेता है।
(१५) जो मनुष्य पूर्ण ब्रह्म को जान लेता है और वह केवल पूर्ण ब्रह्म के ही आश्रय में रहता है और केवल पूर्ण ब्रह्म के ही परायण होकर ध्यान में लगा रहता है तो वैसे मनुष्य का कभी भी पुनर्जन्म नहीं होता है। वैसे मनुष्य का कभी भी अमंगल नहीं होता है। यदि उस मनुष्य का सभी ग्रह अमंगल प्रदान करने वाला हो तो वह भी मंगल में बदल जाता है। उस पूर्ण ब्रह्म का निवास स्थान अगम्य ज्योति है और उसको अनामी लोक भी कहते हैं। वह लोक अगम लोक व कार्य ब्रह्म से १०० करोड़ योजन दूर ऊर्जा नदी के उस पार है जिसको विज्ञ जन वास्तविक गोलोक धाम भी कहते हैं। उसको न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही। वहाँ न प्रकृति के गुण हैं, न काल, न समय, न रोग, न बुढ़ापा और न मृत्यु ही। वहाँ काल का दाल भी नहीं गलता है। उस लोक में व उस स्थान में केवल वही मनुष्य पहुँच पाते हैं जिनमें प्रेम लक्षणा भक्ति गुण है ।