आदिश्री अरुण का महा उपदेश, भाग - 22
परिश्रम का उद्देश्य केवल जीविका का
उपार्जन और धन - दौलत जमा करना नहीं होता बल्कि परिश्रम का उद्देश्य है ईश्वर के समीप आना । यह केवल आत्मा के विकास
से ही संभव है और आत्मा का विकास केवल चिन्तन, मनन, संगीत
और सत्संग से ही संभव होता है । आत्मा का यह विकास मनुष्य को उसके मनुष्यता से
उबार कर ईश्वर की ओर ले जाता है । इसलिए केवल ये सोचना कि जो परिश्रम नहीं कर रहे
हैं वे आलसी हैं यह उचित नहीं है । जितना प्रयास
जीविका का उपार्जन और धन - दौलत जमा करने में होता है उससे कहीं ज्यादा
प्रयास आध्यात्मिक कार्यों में होती है । इस कार्य में मनुष्य को अपने स्वार्थ से
ऊपर उठना पड़ता है, अपने आराध्य में ध्यान केंद्रित करना पड़ता है, अपने आराध्य के चरणों में समर्पण करना
होता है और समर्पण इतना आसान नहीं है । भूल तुम सबसे हो रही है जिसके चलते तुम महिमा में जाने से रोक
दिए जाओगे ।
तुम्हारे भूल निम्न प्रकार वर्णित हैं
:
(१) परमेश्वर के आराधना में
तुम लोगों ने लापरवाही की और
तुम्हारे पूजा पद्धति में विकृति आगई है ।
(२) तुम अपनी अज्ञानता पर प्रसन्न होते
हो । माया के बंधनों में पड़ा तुम अहंकारवश परमेशर के कार्य - व्यापर को अपना
किया बताते हैं, तो भी वह परमात्मा तुम पर क्रोधित न होकर तुम्हारी नासमझी पर
मुस्कुराते हैं । ।
(३) तुम परमेश्वर के शिक्षा के अनुकूल
जीवन न जीकर परमेश्वर को धोखा देते हो और
तुमने परमेश्वर के भवन में दशमांश भी देना बन्द कर दिया ।
(४) मनुष्य परमेश्वर के नजर में विश्वास
योग्य नहीं रहे क्योंकि उसने परमेश्वर के द्वारा दिए गए पर्व - त्यौहारों को मनाना
छोड़ दिया इसलिए वे परिवार समेत दंड के भागी हैं क्योंकि इस गलत कार्य में तुम्हारे
परिवार के सदस्य भी शामिल हैं ।
(५) जब तुम कष्ट एवं विपत्ति में था तब तुमने मुझको
मंदिरों में ढूंढा, मस्जिद में ढूंढा, गिरजाघर में
ढूंढा, नदियों के जल में ढूंढा, सूर्य और चाँद में ढूंढा, पत्थरों
में ढूंढा और मुझको कण कण में बसा दिया और जब मैंने कृपा करके तुमको तुम्हारे दुःख एवं
पड़ेशानियों से बहार निकाल दिया तब
तुम मुझको ही भूल गए । अब तुम लोग
परमेश्वर के सभी नियमों का पालन
नहीं करते बल्कि उसका सब्सटीच्युट
ढूंढते हो ।
हे मनुष्य ! तुम्हें कुछ आवश्यक बातों को समझने का समय आ गया है । जीवन के महत्वपूर्ण चार स्तम्भ हैं - धर्म,
अर्थ,
काम
और मोक्ष । चारों की आवश्यकता सामान रूप से आवश्यक है । केवल
धर्म के और शेष तीनों से विमुख हो जाना उचित नहीं, केवल अर्थ के और शेष तीनों
से विमुख हो जाना उचित नहीं, केवल काम के और शेष तीनों से विमुख हो
जाना उचित नहीं, केवल मोक्ष के और शेष तीनों से विमुख
हो जाना उचित नहीं और यह ईश्वर को भी स्वीकार नहीं ।
यदि केवल धर्म को अथवा केवल अर्थ,
काम
और मोक्ष को ही
महत्त्व दिया जाय तो असंतुलन उत्पन्न हो जाएगा और जीवन में
संकट तभी आता है जब जीवन का स्तम्भ असंतुलित हो जाता है । जीवन में जब भी कोई संकट उत्पन्न हो तो मनुष्य को चाहिए कि वो
सम्पूर्ण रूप से ईश्वर के आश्रय में चला जाय । लेकन केवल ईश्वर के आश्रय में चले
जाओ और प्रयास करना छोड़ दो यह उचित नहीं है ।
तुम में से कुछ लोग ऐसे हैं कि संकट
के घडी में सम्पूर्ण रूप से ईश्वर के आश्रय में चले जाते हो और प्रयास करना छोड़
देते हो और तुम इस भ्रम में सोचने लग जाते
हो कि ईश्वर स्वयं आएंगे और हमारी सहायता करेंगे । किन्तु ईश्वर केवल उसी की
सहायता करते हैं जो स्वयं अपनी सहायता करने का साहस करता है, जो
अपनी परिस्थिति को परिवर्तित करने का प्रयास करता है ।
हे मनुष्य ! अपनी भूल को
स्वीकार करने के लिए साहस की आवश्यकता
होती है और यदि तुम्हें अपनी भूल का आभाष हो जाय तो क्षमा माँगना एक मात्र औपचारिकता
है । इसलिए तुम मेरे लिए एक कुर्सी लगा देना और मैं उस पर ज्योति (प्रकाश
समुद्र) के रूप में निवास करूंगा । जब
कोई मेरा दर्शन करेगा तो मैं भटके हुए
मनुष्यों को सही दिशा प्रदान करूंगा । उन्हें उनके कर्तव्य से, उनके उत्तरदायित्व के पूर्ति हेतु
प्रेरित करूंगा।