गीता सार
अध्याय - 10
(ईश्वर पुत्र अरुण)
गीता सार - श्रीभगवान 7 वें अध्याय में अर्जुन को विज्ञान सहित ज्ञान कह रहे थे । जब बिच में ही 8 वें अध्याय के शुरू में अर्जुन के प्रश्न करने पर अपनी बात कहने में कुछ परिवर्तन किए और उसकी समाप्ति भगवत्परायणता में की । फिर भी श्रीभगवान के मन में और कहने का भाव बना ही रहा । उन्हें अपने कही गई बातों से संतोष नहीं हुआ। जैसे लगता था की भक्त को भगवान की बात सुनते हुए तृप्ति नहीं होती । ठीक उसी तरह भगवान को अर्जुन के प्रति अपनी ह्रदय की बात कहते हुए तृप्ति नहीं हो रही है । इसका कारण यह है कि श्रीभगवान के ह्रदय कि गोपनीय बात भक्त के सिवा संसार में सुनने वाला कोई नहीं है। इसलिए अर्जुन के बिना पूछे ही कृपा पूर्वक गीता अध्याय - 10 का विषय कहना शुरू कर देते हैं ।
गीता अध्याय - 10 में ईश्वर ने कहा कि चुकि तुम मुझसे अतिशय प्रेम करता हो इसलिए मैं तेरे हित की इच्छा से परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन कहूंगा। इसलिए तुम मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को फिर सुन । श्री भगवान् के मन में अपनी महिमा की बात, अपने ह्रदय की बात, अपने प्रभाव की बात कहने का बहुत मन कर रहा है इसलिए वे अर्जुन से कहते हैं कि "तू फिर मेरे वचन को सुन " ।
जो मुझे अजन्मा अर्थात वास्तव में जन्म रहित, अनादि अर्थात आदि से रहित, और लोकों के महान ईश्वर को तत्व से जनता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं।
सभी आध्यात्मिक और सामग्री दुनिया (Material world) उत्पन्न होने का स्रोत मैं हूँ। सभी चीज मुझसे ही उत्पन्न हुआ है । निश्चय करने कि शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह करना, सुख - दुःख, उत्पत्ति-प्रलय, भय-अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति - प्राणियों के ऐसे नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं ।
जो बुद्धिमान पुरुष मेरी इस परमैश्वर्य रूप विभूति को और योग शक्ति को तत्व से जनता है वह निश्चल भक्ति योग से युक्त हो जाता है ।
मैं ही सम्पूर्ण जगत कि उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत चेष्टा करता है - इसप्रकार समझ कर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही भजते हैं । निरन्तर मुझ में मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्त जन मेरी भक्ति कि चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरन्तर रमण करते हैं । उन निरन्तर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेम पूर्वक भजन वाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञान रूप योग देता हूँ जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं । उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्तःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ ।
मेरी उत्पत्ति को अर्थात लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ । गीता अध्याय 10 के श्लोक 14 में कहा गया है कि हे भगवान ! आपके लीलामय स्वरुप को न तो दानव जानते हैं और न देवता ही । देवता इसलिए नहीं जानते हैं क्योंकि वे सुख भोगने में लगे रहते हैं और दानव इसलिए नहीं जानते हैं क्योंकि वे आसुरी गुण में लिप्त रहते हैं । महर्षिजन इसलिए नहीं जानते हैं क्योंकि उनमें जो कुछ बुद्धि है, शक्ति है, सामर्थ्य है, पद है, प्रभाव है, महत्ता है वह सब उन्होंने ईश्वर से ही प्राप्त किया है। इसलिए ईश्वर से प्राप्त किए हुए प्रभाव, शक्ति, सामर्थ्य आदि से वे ईश्वर को पूरा-पूरा कैसे जान सकते हैं ? जैसे बालक जिस माँ से पैदा हुआ है, उस माँ के विवाह को और अपने शरीर के पैदा होने को नहीं जनता ठीक वैसे ही महर्षिजन ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं इसलिए वे ईश्वर से प्रकट होने को और अपने कारण को नहीं जानते ।
अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से विनती किया कि मैं किस प्रकार निरन्तर चिंतन करता हुआ आपको जानूँ , आप किन - किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं ? अपनी योग शक्ति को और विभूति को विस्तार पूर्वक कहिए क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती । तब श्री भगवान ने कहा कि मेरे विस्तार का अंत नहीं है, मेरी जो दिव्य विभूतियाँ है उसको मैं तेरे लिए प्रधानता से कहूँगा । उन्होंने गीता अध्याय 10 : 20 - 40 तक अपनी विभूतियों को बखान करते हुए कहा कि जो - जो भी विभूतियुक्त अर्थात ऐस्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस - उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान । इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है ? मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ ।