गीता सार
अध्याय - 6
गीता सार - अध्याय 6 में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि प्रत्येक मनुष्य धरती पर कार्य करते हैं, लेकिन वे उनका वह कार्य कर्म बंधन उत्पन्न करता है और वे अपने कर्मों के द्वारा कर्म बंधन में बन्ध जाते हैं । कुछ ही लोग ऐसे हैं जो कर्म तो करते हैं लेकिन वे कर्म बंधन में फसते नहीं तथा अपने आपको परमात्मा रूप प्रकाश समुद्र में मिलाये रखते हैं। जो मनुष्य कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह मनुष्य सन्यासी तथा योगी है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि जो दुःखरुप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जानना चाहिए । यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ और बलवान है । यह कठिनता से वश में होने वाला है । जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राय है।
दुखों को नाश करने वाला योग तो यसथयोग्य आहार - विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है । एक दिन में 24 घंटे होते हैं जिसमें
(1) 2 घंटे खाने में तथा घूमने में (Walking करने में) खर्च करो
(2) 8 घंटे काम या नौकरी करने में खर्च करो
(3) 6 घंटे सोने में खर्च करो
(4) 8 घंटे में पूजा, ध्यान, जप इत्यादि करो
ऐसा करने से आपका योग सिद्ध हो जाएगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है। उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही । जो व्यक्ति योग में श्रद्धा रखने वाला है; किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अंतकाल में योग से विचलित हो गया है अर्थात पथभ्रष्ट होगया है, ऐसा मनुष्य पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले ज्ञानवान पुरुषों के घर में जन्म लेता है। वहां उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए समबुद्धि रूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है । प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करने वाला मनुष्य पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है।