परमेश्वर ने गीता ४:६ में कहा कि - अजन्मा और अविनाशीस्वरुप होते हुए भी तथा समस्त प्राणी का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट हूँ। प्रश्न यह उठता है कि आखिर अवतार क्यों लेते हैं ? अवतार लेने के कई कारण हैं -
(१ ) जब -जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब - तब ही ईश्वर अपने रूप को रचते हैं अर्थात साकार रूप से लोगों के सामने प्रकट होते हैं। (गीता ४:७)
(२) साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों को विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए ईश्वर युग - युग में प्रकट हुआ करते हैं।(गीता ४:८)
(३) लोगों का पतन जब इतना नीचे स्तर तक हो गया कि अब मनुष्य के लिए परमेश्वर से मिलना संभव नहीं है तब परमेश्वर मनुष्य से मिलने के लिए नीचे स्तर में अर्थात मनुष्य के स्तर में आने लिए मनुष्य शरीर रचकर कर अवतार लेते हैं।
(४) जीवों पर महान कृपा ही ईश्वर के अवतार लेने का कारण है। ईश्वर के अवतार लेने की दिव्यता को जानने से मनुष्य में ईश्वर के लिए भक्ति हो जाती है। ईश्वर में भक्ति होने से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर लेता है।
(५) ईश्वर के कर्मों की दिव्यता जानने से मनुष्य के कर्म भी दिव्य हो जाते हैं अर्थात वे बंधनकारक न होकर खुद का दूसरे का कल्याण करने वाले हो जाते हैं जिससे संसार से संबन्ध विच्छेद हो जाता है और संसार से संबन्ध विच्छेद होने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है।
(६) श्रीमद्भगवतम् महा पुराण स्कंध - १०, अध्याय - ३३, के श्लोक ३७ में महर्षि वेद व्यास जी ने कहा कि "भगवान जीवों पर कृपा करने के लिए ही अपने आपको मनुष्य रूप में प्रकट करते हैं और ऐसी - ऐसी लीलाएं करते हैं जिन्हें देख कर या सुनकर जीव भागवतपरायण हो जाय। "
परमेश्वर के लिए न तो कोई कर्तव्य है और न उन्हें कुछ पाना ही शेष है। (गीता ३:२२) फिर भी वे समय - समय पर अवतार लेकर केवल संसार का हित करने के लिए सब कर्म करते हैं। जिस युग में जितना कार्य आवश्यक होता है, भगवान उसी के अनुसार अवतार लेकर उस कार्य को पूरा करते हैं। इसलिए भगवान के अवतारों में भेद तो होता है पर स्वयं भगवान में कोई भेद नहीं होता। उसके हुकुम के गुणों का कथन करने वाला करोड़ों ही जीव हैं पर उसके विधान का अंत नहीं पाया जासकता। प्रभु की विभूतियाँ अनंत हैं फिर भी वह सदैव देता ही रहता है। लेने वाले थक जाते हैं पर देने वाले परमात्मा के दिए चले जाने का अंत नहीं होता । युगों - युगान्तरों तक समाप्त न होने वाली अक्षय निधियाँ वह इस संसार को नित्य देता ही जाता है। ऐसे प्रभु का स्मरण सारे कामों से भला है।